गांधी बाबा के सुराज में,
सुरा बहुत है, राज नहीं है। 
राज़ बहुत खुलते हैं, लेकिन
खिलता यहां समाज नहीं है। 
 
 यह देखो कैसी विडम्बना !
राजनीति में नीति नहीं है। 
और राजनैतिक लोगों को,
नैतिकता से प्रीति नहीं है। 
 
 सदाचार का आंदोलन है,
नोटों से भारी थैला है।
दर-दर पर छैला की दस्तक, 
घर-घर में बैठी लैला है। 
 
 यह देखो कैसा मज़ाक है,
कला बिक रही बाज़ारों में।
रूप खड़ा है चौराहे पर,
जंग लग रही हथियारों में।
 
 यह कैसा साहित्य की जिसका,
हित से कुछ संबंध नहीं है !
सभी यहां मुक्तक हैं, यारो,
कोई यहां प्रबंध नहीं है। 
 
हर अध्यापक आलोचक है, 
हर विद्यार्थी गीतकार है। 
सभी नकद सौदा करते हैं,
एक नहीं रखता उधार है। 
  
  हर आवारा अब नेता है,
हर अहदी बन गया विचारक। 
जिसके हाथ लग गया माइक,
वही बन गया प्रबल प्रचारक। 
  आलोचना लोच से खाली,
अब मज़ाक में मज़ा न, ग़म है।
सत्ता से सत निकल गया है,
सिर्फ अहं में हम-ही-हम है। 
(‘हास्य सागर’ से, सन् 1996)