भरतनाट्यम की विश्वविख्यात नृत्यांगना श्रीमती गीता चन्द्रन ने शुक्रवार, 28 जनवरी, 2011 को हिन्दी भवन के खचाखच भरे सभागार में तुलसी, विद्यापति, हित हरिवंश, कबीर, सूर तथा मीरा की रचनाओं को अपने एकल नृत्य के द्वारा सजीव रूप में प्रस्तुत किया। श्रीमती गीता ने भरतनाट्यम शैली में हिन्दी साहित्य का सम्मिश्रण कर एक अद्भुत परिवेश की संरचना कर डाली। हर्ष, सौन्दर्य से होती हुई आकांक्षा, मिथक तथा अध्यात्म की इस नृत्य-यात्रा में सभी दर्शकों को उन्होंने मंत्रमुग्ध कर दिया। इस अवसर पर भारी संख्या में मौजूद राजधानी के साहित्यकार, पत्रकार, लेखकों सहित श्रीमती चन्द्रन की गुरु माँ श्रीमती जमुना कृष्णन भी उपस्थित थीं।
करीब डेढ़ घंटे तक चले इस कार्यक्रम में श्रीमती चन्द्रन ने गणपति वंदना से कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए जहां एक ओर मन और आत्मा के पट खोलकर उजियारे को देखने के लिए कबीर के निर्गुण रूप से कलाप्रेमियों के रूबरू कराया वहीं दूसरी ओर मीरा के विरह के आंसूओं का भी बखूबी चित्रण किया। सूरदास के पद जिसमें यशोदा कृष्ण को सुलाने के लिए रामकथा सुनाती है और जब सीताहरण का प्रसंग आता है तो किस प्रकार कृष्ण राम का रूप धारण कर लेते हैं, इसे नृत्य कला के माध्यम से श्रीमती चन्द्रन ने जीवंत कर दिया। कार्यक्रम का समापन समर्पण भाव को उजागर करती हुई राधारमण के संकीर्तन से हुआ।
भरतनाट्यम शैली के प्रचार-प्रसार में प्रयत्नशील संस्था ‘नाट्यवृक्ष’ की गीताजी संस्थापक अध्यक्षा तथा निदेशक भी हैं। शास्त्रीय नृत्यांगनाओं को समुचित परिवेश उपलब्ध कराने में श्रीमती गीता चन्द्रन सदैव ही अग्रणी रही हैं।
कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल एवं हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी के सान्निध्य में आयोजित इस समारोह का कुशल संचालन श्रीमती अलका सिन्हा ने किया और प्रसिद्ध व्यंग्य कवि एवं हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने ललित कलाओं को ऊंची मनुष्यता के द्वार खोलने वाला बताया तथा वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला और संगीतकला एवं काव्यकला का तुलनात्मक विश्लेषण अपने संक्षिप्त वक्तव्य एवं आभार भाषण में व्यक्त किया।