प्रसिद्ध और सिद्ध हास्यकवि स्व0 अल्हड़ बीकानेरी की स्मृति में एक सभा का आयोजन 23 जून, 2009 को हिन्दी भवन के तत्वावधान में किया गया। जिसमें राजधानी ही नहीं, अन्य नगरों से आए कवियों, लेखकों, पत्रकारों एवं बुद्धवियों ने भी अल्हड़जी को नम आखों से श्रद्धांजलि अर्पित की।
प्रसिद्ध कवि बालकवि बैरागी ने अल्हड़जी से जुड़े संस्मरण सुनाते हुए कहा कि श्रुति के देश में पहले आदित्य और अब अल्हड़ के चले जाने से काव्य की वाचिक परंपरा और हास्य की अपूरणीय क्षति हुई है। इन दोनों कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विश्वविद्यालयों से संबद्ध साहित्यकारों को शोध कराने के प्रयास करने चाहिए। कवि और राजनेता उदयप्रताप सिंह ने कहा कि अल्हड़जी ने कविता को गंभीरता से लिया और शरीर की खाल की तरह कविता को जिया। मैंने उन्हें कभी गुटबंदी और किसी की निंदा करते हुए कभी नहीं देखा। वरिष्ठ गीतकार बालस्वरूप राही का कहना था कि अल्हड़जी मंचीय कवियों के स्वाभिमान के प्रतीक और रक्षक थे। वह एक समर्थ कवि और अद्वितीय पैरोडीकार थे। वरिष्ठ साहित्यकार एवं कवि डॉ0 शेरजंग गर्ग ने अल्हड़जी को एक स्वाभिमानी कवि और सच्चा इंसान बताते हुए कहा कि उनकी रचनाओं में व्यंग्य कूट-कूटकर भरा था। वह कभी श्रोताओं से दाद की मांग नहीं करते थे। व्यंग्य-कवि अशोक चक्रधर ने कहा कि अल्हड़जी की हंसी में गहरा दर्द छिपा होता था। वह आम आदमी के पक्षधर और सकारात्मक सोच वाले कवि थे। वरिष्ठ हास्यकवि सुरेन्द्र शर्मा ने कहा कि पिछले कुछ दिनों में कई हास्य-कवियों के निधन से मंच और हास्य की क्षति तो हुई है, लेकिन हास्य वाले मृत्यु से डरते नहीं हैं, उसे डराते हैं।
हिन्दी भवन के मंत्री और वरिष्ठ व्यंग्य-कवि डॉ. गोविन्द व्यास ने अल्हड़जी का स्मरण करते हुए उनके व्यक्तित्व को एक दोहे के माध्यम से रेखांकित किया- “हद-हद जपै सो औलिया, अनहद जपै सो पीर। हद-अनहद दोनों जपै वाको नाम फकीर॥” अल्हड़जी ‘हद-अनहद’ को जपने वाले फक्कड़ कवि थे। दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष महेशचन्द्र शर्मा ने अल्हड़जी को याद करते हुए कहा कि वह शास्त्रीय संगीत के अच्छे ज्ञाता थे, इसी कारण वह मंच पर बड़े सुरीले अंदाज में कविता पढ़ते थे। युवा हास्यकवि अरुण जैमिनी ने कहा कि अल्हड़जी कवियों की युवा पीढ़ी के घोषित और अघोषित काव्यगुरु के साथ-साथ उसके प्रेरक प्रेमी भी थे। जयपुर से आए हास्यकवि सम्पत सरल ने अल्हड़जी को याद करते हुए कहा कि उन्हें ग़ज़ल में महारत हासिल थी। उनकी कविता काव्यशास्त्रीय मानदंडों पर खरी उतरती है।
स्व. अल्हड़ बीकानेरी की स्मृति सभा में पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर, डॉ. कीर्ति काले, सरिता शर्मा, पुरुषोत्तम वज्र, दिनेश रघुवंशी, कुमार विश्वास, राजेश चेतन, देवेन्द्र आर्य, गजेन्द्र सोलंकी, दीक्षित दनकौरी, महेन्द्र अजनबी, रेखा व्यास, हलचल हरियाणवी, महेन्द्र शर्मा, बागी चाचा, बाबूलाल शर्मा, किशोरकुमार कौशल, सतीश सागर आदि ने अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए। स्मृति सभा का संचालन युवा हास्यकवि प्रवीण शुक्ल ने किया।
“लोकप्रिय और यशस्वी हास्यकवि अल्हड़ बीकानेरी बुधवार, 17 जून, 2009 को हमारे बीच नहीं रहे। स्व. अल्हड़ बीकानेरी ने हिन्दी काव्यमंच पर छन्दबद्ध और गेय हास्य-कविताओं के द्वारा अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। अल्हड़ जी का जन्म 17 मई, 1937 को हरियाणा के रेवाड़ी जिले के बीकानेर गांव में हुआ। उनकी काव्ययात्रा का प्रारंभ सन् 1962 में ‘गीत-ग़ज़ल’ से हुआ। सत्तर के दशक में उन्होंने कवि-सम्मेलनों में भाग लेना शुरू किया। अपनी सरल, सरस और सहज हास्य-कविताओं के द्वारा अल्हड़ जी ने लाखों-करोड़ों श्रोताओं को गुदगुदाया। उनका हास्य शुद्ध और शिष्ट होता था। अल्हड़ जी की रचनाएं प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित हुईं। सन् 1986 में उन्होंने हरियाणवी फीचर फिल्म ‘छोटी साली’ के गीत व कहानी का लेखन और निर्माण किया।
अल्हड़ बीकानेरी ने काव्य की लगभग 15 कृतियों का सृजन किया। जिनमें ‘भज प्यारे तू सीताराम’, ‘घाट-घाट घूमे’, ‘अभी हँसता हूं’, ‘अब तो आँसू पोंछ’, ‘ठाठ ग़ज़ल के’, ‘रेत पर जहाज’, ‘अनछुए हाथ’, ‘खोल न देना द्वार’ और ‘जय मैडम की बोल रे’ बेहद लोकप्रिय हुईं।
अल्हड़ जी को ‘ठिठोली पुरस्कार’, ‘काका हाथरसी सम्मान’ और ‘टेपा सम्मान’ से नवाजा गया। उनका व्यक्तिव अंतिम समय तक उनके नाम के अनुरूप रहा। उनके न रहने से हिन्दी के शुद्ध हास्य को गहरी क्षति पहुंची है।
परमपिता परमेश्वर से हम प्रार्थना करते हैं कि स्व. अल्हड बीकानेरी जी की आत्मा को शान्ति एवं सदगति प्रदान करें और इस दुःख की घड़ी में उनके परिजनों को धैर्य धारण करने की शक्ति दें।
ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः !”