आपुन मुख हम आपुन करनी

कहते हैं वे कि आत्मकथा लिखना अत्यंत कठिन कार्य है। मैं कहता हूं कि इससे सरल और प्रिय कार्य कोई दूसरा है ही नहीं। मैं-मैं करते जाओ, आत्मकथा बन जाएगी। मिर्च-मसाले लगाते चलो तो चटपटी हो जाएगी। कुछ काम-कथाएं गढ़ डालो, लोगों को स्वाद आने लगेगा। लिखो कि मैंने यह तीर मारा, वह तीर मारा। यह रिकार्ड तोड़ा, वह कीर्तिमान स्थापित किया। चंद असत्यभाषियों को छोड़कर अधिकांश लोग इसे सत्य मान लेंगे और आपके प्रतिविनम्र एवं श्रद्धालु बन जाएंगे।

न बनें, न पढ़ें, न कहें-आपको तो आत्मसंतोष होगा ही। संतोष तुलसीदासजी को भी होगा कि लेखक ने ‘तुम’ की जगह ‘हम’ का प्रयोग करके उनकी चौपाई को धन्य कर दिया-

“आपुन मुख ‘हम’ आपुन करनी।
बार अनेक, भांति बहु बरनी॥”

जी, इस पुस्तक में मैंने यही किया है। अब आप कुछ भी सोचें और कुछ भी कहें। आप मानें या न मानें, मुझे तो प्रशंसा बहुत प्रिय है। कभी कुछ लिखता हूं तो यही लालसा रहती है कि इसे किसको सुनाऊं और किसको पढ़ाऊं ? मेरे लिए वह क्षण सबसे अधिक आनंददायक होता है, जब लोग कहते हैं-“वाह ! वाह !! क्या शब्द-विन्यास है ! कैसी अनुपम भावाभिव्यक्ति है ! ऐसा ललित लेखन तो हिन्दी में आपके बाद ही समाप्त हो जाएगा।” जब किसी सभा में भाषण देता हूं तो मेरी कोशिश यही होती है कि तालियां बार-बार बजें। सिर्फ तालियों से भी संतोष नहीं होता। जो मिलता है, उससे पूछता हूं कि भाई, मेरा भाषण कैसा रहा ? ठीक था न ? अगर वह मन-प्रसन्न बात कहे तो मेरा प्रिय और चुप रह जाए तो बुद्धू तथा मीनमेख निकाले तो उसका नाम अप्रिय लोगों की सूची में डाल देता हूं। ऐसा स्वभाव मेरा ही है, ऐसी बात नहीं। अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न न होने वाला व्यक्ति मुझे तो मिला नहीं। यह बात दूसरी है कि वह मुझसे भी अधिक गुरुघंटाल हो और प्रसन्नता के रस को मन ही मन पचा जाए। प्रशंसा के बल पर किस-किसने कितने काम निकाले हैं, यह कौन नहीं जानता। और तो और, अब ईश्वर भी अपनी प्रशंसा सुनने का आदी हो गया है, तब मुझ जैसे की क्या औकात ?

यह पुस्तक भी मैंने प्रशंसा पाने के लिए लिखी है। अब उतरती उम्र में और कर भी क्या सकता हूं ? चाहता हूं कि लोग आएं, कहें और लिखें मेरे संबंध में अपने प्रशंसनीय उदगार। परंतु विडंबना देखिए कि मेरे जीते-जी लोगों ने मेरी प्रशंसा करना बंद कर दिया है। मेरे रहते ही मुझे भूले जा रहे हैं। तब मैं कालजयी कैसे बनूंगा ? मैंने तो समझा था कि मैं अमरता का वरदान लेकर अवतरित हुआ हूं। लेकिन ये क्या हो रहा है ? उठाओ कलम ! बताओ दुनिया को कि मैं क्या हूं ? भाई, मेरे रहते ही मुझको समझ लो न ! बाद में पछताओगे और लोगों से पूछते फिरोगे। जो गलती सूरदास, तुलसी, कबीर या दूसरे साहित्यकारों ने की है वह मैं नहीं करूंगा कि ये लोग अपने बारे में किसी को कुछ नहीं बता गए। इसलिए अब लोगों को माथापच्ची करनी पड़ रही है। ढूंढ़-ढूंढकर संबद्ध और असंबद्ध बातों के पोथे लिखे जा रहे हैं और उन पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं। मैं इस संबंध में शुरू से ही सावधान रहा हूं। कोई माने या न माने, मैंने अपनी पुस्तकों पर अपने नाम से पहले प्रकाशकों को हास्य-रसावतार लिखने दिया है। लोगों को टंडनजी का उत्तराधिकारी कहने दिया है। किसी ने मुझको ब्रज का भीष्मपितामह कहा तो मैंने सुझाया कि हो जाए इस पर एक उत्सव। मेरे जन्मस्थान को देखने के लिए लोग तीर्थयात्रा पर निकलें और उनको कुछ पता नहीं चले, मैंने इसलिए मित्रों से कहा कि बनाओ व्यास-जन्मस्थान। पधराओ ऊंचे शिखर के नीचे सरस्वती की प्रतिमा। कागज तो बहुत काले कर लिए, अब श्वेत पत्थरों को काला करो और जड़ दो इनमें मेरा जीवनवृत्त। मकान बनाओ पीछे, पहले लिख दो– ‘व्यास-निवास’। मैं बहुत शीघ्र महाकवि और महाप्राण बनने वाला हूं। संभालकर रखो मेरी जूतियां से लेकर टोपियां तक। चित्रों से लेकर पनडब्बे और पीकदान तक। देखो, ये अलभ्य वस्तुएं विदेश न चली जाएं। भारतीय संस्कृति और साहित्य की धरोहर देश में ही रहनी चाहिए।

हां, तो मैं कह रहा था कि आत्मकथा-लेखन बहुत सरल कार्य है। नाटक लिखो तो पहले रंग-सज्जा और मंच-निर्देशों के बारे में सोचो।

किस पात्र को किस पात्र से कैसी भाषा बुलवानी है। उसकी कैसी सुगति या दुर्गति करनी है ? कब पर्दा उठना है, कब गिरना है ? किस समस्या को उभारना है ? लिखो तो उससे पहले यह सोच लो कि दर्शकों का उससे मनोरंजन भी होना चाहिए ? हीरो कैसा हो, विलेन कैसा हो, नायिका कैसी हो और प्रतिनायिका कैसी हो, उनकी वेशभूषा क्या हो और जब वे मंच पर उपस्थित होते हों तो उस कक्ष का या उस राह का वातावरण कैसा हो ? कितने झंझट हैं नाटक-लेखन में ? फिर नाटक लिखना ही पर्याप्त नहीं। उसका मंचन होना भी आवश्यक है। किसी नामधारी प्रकाशन से उसका छपना तो बहुत ही जरूरी है। नाटक छपा और पुरस्कृत न हुआ तो परिश्रम बेकार। करो जोड़-तोड़। मिलाओ कुलाबे। बनाओ अपनी खाल को मोटी जो पेशेवर नाट्य-समीक्षकों की नुक्स निकालने वाले तीखे तीरों की बौछार को सह सके। इसीलिए हमने नाटक नहीं लिखे। नाटकीय बनाया अपने जीवन को ही नहीं, अपने लेखन को भी। कथा-लेखन तो और भी दुष्कर कार्य है। पूर्ववर्ती और समकालीन कथा-लेखकों से अलग हटकर कुछ सोचो। परंपराओं को तोड़ने का साहस संजोओ। कथानक का ताना-बाना बुनो। समाज के अनमोल या बेमोल पात्रों का चुनाव करो। लिखने से पहले यह तय करो कि कहानी या उपन्यास कितने पृष्ठों के होंगे। उससे पहले तय करो कि उसकी प्रासंगिकता को, उसकी आंचलिकता को। बचो प्रेममचंद से। बचो वृंदावनलाल वर्मा से। बचो रेणु से। बचो अमृतलाल नागर से। भूलो जैनेन्द्र और अज्ञेय को। देखना कहीं तुम्हारे कथा-लेखन पर निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव या कमलेश्वर की छाया न पड़े। खबरदार यदि ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ने का गुनाह किया ! याद रखो कि तुम्हारी तुलना देश के कथा-लेखकों से ही नहीं, पाश्चात्य कथा-लेखकों से भी की जाएगी। टालस्टाय तो अप्रासंगिक हो गए, लेकिन गोर्की की ‘मां’ अभी जिंदा है। मोपासां, समरसेट माम और कामू जैसे अनेक लेखक तुम्हारे लेखन के लिए खतरे बने हुए हैं। न बाबा, हमने ऐसी जोखिम नहीं उठाई। दूसरों की कहानी क्या लिखना ? लिखनी हो तो अपनी लिखो। झूठ के साथ थोड़ा सच मिलाओ। सपाट इतिवृत्त में साहित्य का रस घोलो। अपने जीवन के लालित्य को आप बीती में घोलकर कहो कि यह आपबीती ललित साहित्य की विधा में लिखी गई है। क्यों, ठीक है न ?

और कविता ! वह तो जी का जंजाल है। कविता जिसके जीवन में आई तो समझो कि वह आदमी नहीं रहा, कुछ और होगया है। रात-रात भर तारे गिनकर तुकों और काफियों, प्रारंभ और क्लाइमेक्स के बारे में सोचता रहता है। रात अंधेरी हो तो उसकी कविता में अधंकार आ जाता है। चांद-तारों को देखकर उसके मन में तरह-तरह की तस्वीरें उभरती रहती हैं। दिन में वह पढ़ता नहीं, लिखता नहीं, कोई और काम करता नहीं। या तो किसी अनदेखी प्रेयसी के संबंध में सोचता रहता है या प्रतीकों और बिम्बों अथवा इनके मानवीकरण के संबंध में सोचता रहता है। बड़ी मुश्किल से कविता बन पाती है। पत्रों में छप जाए तो पुस्तकाकार नहीं हो पाती। पुस्तकाकार हो जाए तो बिक नहीं पाती। बिकती नहीं तो अर्थ से भी गए और यश से भी। या तो आपस में तू मेरी पढ़ और मैं तेरी पढ़ता हूं, की रीति पर चलो या मंचीय कवियों को कोसो। मंचीय कविता तो कविता रह ही नहीं गई। लिख मारी शताधिक कविताएं। सोचा, बड़ा तीर मार लिया। लेकिन धीरे-धीरे वे विस्मृति के गर्त में मेरे सामने ही विलीन होती जा रही हैं। लोग कहते हें कि अब नया लिखो। पागल हैं- “आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे ?”

इसीलिए हमने अपनी आत्मकथा लिखी है। फिर आत्मप्रशंसा करता हूं कि इसमें पग-पग पर कविता है। एक-एक लेख अपने आपमें ललित निबंध है। हर लेख मेरी एक कहानी है। पूरी पुस्तक पठनीय है, समूचा उपन्यास है। भला-बुरा जैसा भी हूं, अपनी पूर्ण क्षमता से इस पुस्तक में हूं।

महर्षि चाणक्य ने कहा है कि जो अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करता है, वह प्रशंसनीय नहीं है। प्रशंसा का पात्र तो वह है जिसकी तारीफ दूसरे लोग करें। चाणक्य यदि आज होते तो मैं उनसे कहता कि गुरुवर, प्रशंसा करने वालों का युग समाप्त हो गया। आजकल निंदा-युग चल रहा है। अब प्रशंसा की नहीं जाती, कराई जाती है। मैंने जीवनभर यह शुभकार्य किया है। आपको तो चंद्रगुप्त मिल गया, लेकिन मेरी प्रशंसा कराने की कला को सीखने और समझने वाला अभी तक कोई नहीं आया। किसी को आज किसी की प्रशंसा करने की फुरसत है ही कहां ? कोई हो तो उसे भेजो। नहीं तो यह पुस्तक भी मैंने लोगों से अपनी प्रशंसा कराने के लिए ही लिखी है। यह मेरी कला का प्रशंसनीय उदाहरण है। जो इसे पढ़कर प्रशंसा करने को बाध्य न होंगे तो मैं यहीं कहूंगा- “गुन न हिरानौ, गुन-गाहक हिरानौ है।”

(‘कहो व्यास, कैसी कटी ?’, सन् 1994)