‘एजी’ कहूं कि ‘ओजी’ कहूं

‘एजी’ कहूं कि ‘ओजी’ कहूं
‘सुनोजी’ कहूं कि ‘क्योंजी’ कहूं
‘अरे ओ’ कहूं कि ‘भाई’ कहूं
कि सिर्फ भई ही काफी है ?
अब तुम्हीं कहो, क्या कहूं ?
तुम्हारे घर में कैसे रहूं ?

‘सरो’ कहूं या ‘सरोजिनी’
पर नाम न तुम लेने देतीं !
तो ‘जग्गो’ की जीजी कह दूं ?
ए ‘शीला की संगिनि’ बोलो
तुम मुरली की महतारी हो,
‘बोबो’ की बेटी प्यारी हो,
तुम ‘चंद्रकला की चाची’ हो,
तुम ‘भानामल की बूआ’ हो,
तुम हो ‘गुपाल की बहू’
……….कहो क्या कहूं ?
तुम्हारे घर में कैसे रहूं ?

कुछ नए नाम ईज़ाद करूं,
प्राचीन प्रथा बर्बाद करूं,
या रूप, शील, गुण, कर्मों से ही
तुम्हें पुकारूं याद करूं ?
कि ‘बुलबुल’ कहूं कि ‘मैना’ कहूं,
कि मेरी ‘सोनचिरय्‌या’ बोलो तो,
ये रसमय अपनी चोंच
‘कोयलिया’ खोलो तो !

तुम संकल-चम्मच बजा-बजाकर
अपना काम चला लेतीं ।
तो मुझको भी क्यों नहीं,
कनस्तर टूटा-सा मंगवा देतीं ?

या खुद ही किसी रोज
देवी के मेले में मैं जाऊंगा,
औ’ छोटी-सी डुमडुमी एक
अच्छी खरीदकर लाऊंगा।

फिर संबोधन की सकल समस्या
पल में हल हो जाएगी,
जब कभी बुलाना होगा तो
डुमडुम डुमडुमी बजाऊंगा ।

तुम रूठ गईं, ये ठीक नहीं,
तो कहो ‘अटकनी’ कहूं ?
‘मटकनी’ कहूं, ‘चटखनी’ कहूं ?
अब तुम्हीं कहो, क्या कहूं ?
तुम्हारे घर में कैसे रहूं ?

मैं ‘हनी’ कहूं या ‘डियर’ कहूं ?
या ‘डार्ल’ पुकारूं अंग्रेजी ?
या स्वयं देवता बन जाऊं ?
औ’ तुम्हें पुकारूं ‘देवीजी’ ?
ये देवी नहीं पसंद
कि ‘मैंने कहा’ इसे भी रहने दो ।
तुम ‘मेरी कसम’ मान जाओ
बस ‘कामरेड’ ही कहने दो ।

ऐ कामरेड, घर गवर्मिंट
मेरी स्टालिन, बोलो तो !
मैं चर्चिल कब का खड़ा
अरी, फौलादी मुखड़ा खोलो तो ?

ऐ कामरेड, घर गवर्मिंट
मेरी स्टालिन, बोलो तो !
मैं चर्चिल कब का खड़ा
अरी, फौलादी मुखड़ा खोलो तो ?

‘हास्य सागर’ से, सन् 1996