(बनारसीदास चतुर्वेदी)
आगरे के साहित्यरत्न भंडार में एक पार्टी का आयोजन था। अकस्मात मैं भी वहां पहुंच गया। तब मुझे मालूम हुआ कि वह श्री गोपालप्रसाद व्यास की विदाई-पार्टी है। व्यासजी की कीर्ति मैंने उस दिन से सुन रखी थी, जब उन्होंने वह अपनी सुप्रसिद्ध कविता-‘मेरी कुटिया में घुस आई, वह बाबूजी की डबल भैंस’ किसी कवि-सम्मेलन में सुनाई थी। इस कविता की आगरे के साहित्य-जगत में काफी चर्चा रही थी। व्यासजी के संघर्षमय जीवन का भी मुझे कुछ-कुछ पता था। ब्रज-साहित्य-मंडल के लिए उन्होंने जो असाधारण परिश्रम किया, उसके कारण भी हम लोग अधिकाधिक निकट आते रहे और फिर उसके बाद तो दिल्ली में हम लोगों ने बारह वर्ष तक साथ-साथ भाड़ झोंका ! संस्थाओं को कायम करने की बीमारी हम दोनों को रही है और जो लोग इस अव्यापार में फंसते हैं, उनकी मिसाल ‘पंचतंत्र’ के उस बंदर से दी जा सकती है, जिसने चिरी हुई लकड़ी में से खूंटा उखाड़ लिया था और उसके बाद उसकी जो दुर्गति हुई थी, वह जगज़ाहिर है !
मथुरा में चतुर्वेदी पंडों तथा अन्य जातीय पुरोहितों में यजमानों के लिए अक्सर झगड़े हुआ करते हैं और कभी-कभी तो फौजदारी भी हो जाती है। इसलिए हम दोनों मथुरियों में मतभेद होना सर्वथा स्वाभाविक था। व्यासजी मुंहफट ठहरे। वह किसी की रिआयत नहीं करते। एक बार उनकी हरकतों से तंग आकर मैंने ‘नवीनजी’ से उनकी शिकायत की, तो नवीनजी ने कहा- ”है तो व्यास बड़ा औटपाई। पर तुम्हें उसकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए और उसे अपने साथ ही रखना चाहिए।” इसके बाद व्यासजी की बातों का मैंने बुरा नहीं माना। वह वस्तुतः मेरे शुभचिन्तक रहे और अब भी हैं। वह मुझे विज्ञापित करने का मौका कभी नहीं छोड़ते। ब्रज-साहित्य-मंडल की पुस्तिका में सर्वप्रथम उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था कि उस मंडल को स्थापित करने की प्ररणा मैंने ही दी थी।
मैं अक्सर एक मज़ाक किया करता था-
मेरे स्वर्गवासी होने पर श्री मुकुटजी ‘हिन्दुस्तान’ में मेरे विषय में अग्रलेख न लिखकर संपादकीय नोट ही लिखेंगे और मैं उनकी उस संपादकीय टिप्पणी के लिए अपनी जान नहीं देना चाहता ! जब कोई मुझे किसी सभा या कवि-सम्मेलन में जाने का निमंत्रण देता, तब उस कष्ट से मुक्ति पाने के लिए मैं यही तर्क पेश कर दिया करता था। एक बार व्यासजी ने जब किसी मीटिंग के लिए बुलाया, तब मैंने फोन पर वही तर्क उपस्थित कर दिया। व्यासजी भला कब चूकने वाले थे ? तुरंत ही बोले- ”जाकी फिकिर तुम मत करौ। मैं बड़ौ बढ़िया अग्रलेख तुम्हारे बारे में लिखौंगो। तुम परीक्षा करके तो देख लेउ !” व्यासजी के उस मुंहफट जवाब के बाद मैं निरुत्तर हो गया।
एक बार बंधुवर नवीनजी ने मेरे बारे में बड़ी ऊटपटांग कविता लिखी थी और उसकी तर्ज उन्होंने रखी थी-
‘मर गए लाला कुन्दनलाल ठंडी बरफ बनाने वाले।’
मैंने व्यासजी से कहा कि नवीनजी की कविता का जवाब देना है। व्यासजी तुरंत मेरी रक्षा के लिए उद्यत होगए और उन्होंने नवीन पर बड़ी मधुर चोट की, जिसमें उन्हें ”छैला टेढ़ी टोपी वारे’ कहकर संबोधित किया गया था। अपनी किसी एक कविता में व्यासजी ने ‘टीकमगढ़ी’ प्रचार का भी उल्लेख किया है। जब मैंने एक मीटिंग में, जो श्रद्धेय टंडनजी का अभिनंदन करने के लिए बुलाई गई थी, यह निवेदन किया कि दिल्ली में बनने वाले हिन्दी-भवन का नाम ‘पुरुषोत्तम हिन्दी भवन’ होना चाहिए, तब व्यासजी ने उसका हार्दिक समर्थन किया और आगे चलकर अपने साथी-संगियों से भी मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकृत करा दिया तथा अब ‘श्री पुरुषोत्तम हिन्दी भवन न्यास’ (ट्रस्ट) नाम से संस्था का संगठन कर लिया है। प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री उसके अध्यक्ष हैं और व्यासजी उसके मंत्री।
पिछले 20-22 वर्षों में राजधानी में राष्ट्रभाषा के लिए जो महान कार्य हुआ, उसमें व्यासजी का ज़बरदस्त भाग है। ब्रजवासियों से वह ब्रजभाषा में ही बोलते हैं और पत्र भी यथासंभव ब्रजभाषा में ही लिखते हैं। केन्द्रीय मंत्री
श्री राजबहादुर भी हमसे ब्रजभाषा में ही बोलते हैं और पत्र-व्यवहार करते रहे हैं।
व्यासजी के कितने ही पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। उन पत्रों में सबसे महत्वपूर्ण है वह पत्र, जो उन्होंने छिपैटी मुहल्ला, इटावे की होली की पड़वा देखने के बाद लिखा था ! उस पत्र को हमने विशेष रूप से सुरक्षित कर रखा है और उसे हम प्रेस को तब भेजेंगे, जब हमारा एक पैर कब्र में होगा। उस महत्त्वपूर्ण पत्र को डाकखाने में डालकर हम धड़ामसैनी कब्र में कूद पड़ेंगे, फिर भले ही धर्मप्राण चौबे लोग हमें वहां से निकाल कर ‘कांधे चले चढ़ि चार जना के’ इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए जमना मैया की शरण में ले जाएं।
व्यासजी ने लाखों ही व्यक्तियों का मनोरंजन किया है और उनकी विनोदपूर्ण रचनाओं के सहस्त्रों ही प्रशंसक है। जिस-जिस पत्र में वह लिखते हैं, उसकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। कवि-सम्मेलनों में उनकी बड़ी पूंछ (!) होती है और साहित्य-गोष्ठियों पर तो वह छा जाते हैं ! यदि व्यासजी के हास्य रस संबंधी सभी लेखों का संग्रह किया जाए, तो वह कई जिल्दों में आएगा। हमें तो इस बात से आश्चर्य है कि व्यासजी इतना अधिक लिख कैसे सकते हैं ! कोई ‘गणेश’ जैसा लेखक भी उनके पास नहीं !
फिर भी व्यासजी के कई ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं और यदि वह संस्थाओं के चक्कर में न फंसे होते तो और भी महत्वपूर्ण साहित्य-सेवा कर सकते थे। लाला श्री निवासदास पर उनका शोध-ग्रंथ अब भी अधूरा और अप्रकाशित है।
सरकार द्वारा दी जाने वाली उपाधियों के बारे में हमारे हृदय में विशेष सम्मान नहीं, फिर भी जब व्यासजी को ‘पद्मश्री’ दी गई, तब तो हमें हार्दिक हर्ष हुआ, क्योंकि यह सर्वथा योग्य व्यक्ति का सम्मान था। उस समय हमने लिखा था-
”श्रद्धेय लालबहादुर शास्त्री की सरकार ने एक भोले-भाले ब्रजवासी को ठग लिया, क्योंकि व्यासजी तो उच्चतर उपाधि के अधिकारी हैं।”
व्यासजी सिर्फ दूसरों का ही मज़ाक नहीं उड़ाते, अपना मज़ाक उड़ाने में भी उन्हें मज़ा आता है।
दिल्ली छोड़े हुए हमें साल-भर से अधिक होगया। इस बीच हमें राजधानी के तत्कालीन जीवन की कई बार याद आई है। स्वर्गीय दद्दा मैथिलीशरणजी के वे मधुर व्यंग्य अब कहां सुनने को मिलेंगे ? और बंधुवर नवीनजी का भ्रातृभाव तो सदा के लिए चला गया। यद्यपि दिल्ली में अनेक ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं, जो मुझ पर कृपाभाव रखते हैं, तथापि दिल्ली पहुंचने के लिए मेरे मन में कोई विशेष उत्साह नहीं। फिर भी भूले-भटके कभी दिल्ली का स्मरण हो आता है तो नवीनजी के ‘औटपाई’ व्यासजी को मैं नहीं भूल पाता-
”याद मोहि आवें वे झगरे गुपाल के”
(‘व्यास-अभिनन्दन ग्रंथ’ से, सन् 1966)