गलत न समझो, मैं कवि हूं प्रयोगशील,
खादी में रेशम की गांठ जोड़ता हूं मैं।
कल्पना कड़ी-से-कड़ी, उपमा सड़ी से सड़ी,
मिल जाए पड़ी, उसे नहीं छोड़ता हूं मैं।
स्वर को सिकोड़ता, मरोड़ता हूं मीटर को
बचना जी, रचना की गति मोड़ता हूं मैं।
करने को क्रिया-कर्म कविता अभागिनी का,
पेन तोड़ता हूं मैं, दवात फोड़ता हूं मैं ॥
श्रोता हजार हों कि गिनती के चार हों,
परंतु मैं सदैव ‘तारसप्तक’ में गाता हूं।
आंख मींच सांस खींच, जो भी लिख देता,
उसे आपकी कसम ! नई कविता बताता हूं।
ज्ञेय को बनाता अज्ञेय, सत्-चित् को शून्य,
देखते चलो मैं आग पानी में लगाता हूं।
अली की, कली की बात बहुत दिनों चली,
अजी, हिन्दी में देखो छिपकली भी चलाता हूं।
मुझे अक्ल से आंकिए ‘हाफ’ हूं मैं,
जरा शक्ल से जांचिए साफ हूं मैं।
भरा भीतर गूदड़ ही है निरा,
चढ़ा ऊपर साफ गिलाफ हूं मैं ॥
अपने मन में बड़ा आप हूं मैं,
अपने पुरखों के खिलाफ़ हूं मैं।
मुझे भेजिए जू़ में, विलंब न कीजिए,
आदमी क्या हूं, जिराफ हूं मैं ॥
बच्चे शरमाते, बात बकनी बताते जिसे,
वही-वही करतब अधेड़ करता हूं मैं।
बिना बीज, जल, भूमि पेड़ करता हूं मैं,
फूंक मार केहरी को भेड़ करता हूं मैं।
बिना व्यंग्य अर्थ की उधेड़ करता हूं, और
बिना अर्थ शब्दों की रेड़ करता हूं मैं।
पिटने का खतरा उठाकर भी ‘कामरेड’
कालिज की छोरियों से छेड़ करता हूं मैं॥
( ‘हास्य सागर’ से, सन् 1996 )