हिन्दी भवन द्वारा सोमवार, 28 मार्च, 2011 को अपने सभागार में एक सफल एवं सुरूचिपूर्ण काव्य-संध्या का आयोजन किया गया। इस काव्य-संध्या में गांवों, कस्बों और अनेक उपनगरों से पधारे ऐसे कवियों ने रसवंत काव्यपाठ किया, जिनको राजधानी के लोगों ने बहुत कम सुना है।
देर रात तक चली इस काव्य-संध्या में पधारे कवियों ने अपने काव्यपाठ से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।
वरिष्ठ कवि श्री उदयप्रताप सिंह की अध्यक्षता में आयोजित इस काव्य-संध्या का शुभारंभ चित्तौड़गढ़ से पधारे श्री रमेश शर्मा के गीतों से हुआ। कवियों द्वारा सुनाई गई रचनाओं के अंश बानगी के रूप में प्रस्तुत हैं-
साझी धूप मुझसे रखते मुझको भी जलने देतेकच्ची-पक्की डगर पे संग-संगकुछ दिन चलने देते,
डांट-डपट और लड़ना-झगड़नालाड़ में ढ़ल गया माँ,
सभी अभी से बदल गया माँक्यों अभी से बदल गया माँ।
सर छुपाने का ठिकाना होता,
कोई पीपल जो पुराना होता।कर दिया दान अगूंठा वरना,
लक्ष्य पर मेरा निशाना होता।
हम न होते जो कान के बहरे,कैसे गूगों का तराना होता।
नदी के घाट पर भी गर सियासी लोग बस जाएं,
तो प्यासे होंठ एक-एक बूंद पानी को तरस जाएं।
गनीमत है कि मौसम पर हुकूमत चल नहीं सकती,
नहीं तो सारे बादल इनके खेतों में बरस जाएं।
कुछ मिला भी नहीं,
कुछ कमी भी नहीं,
आँख में अब वो पहली नमी भी नहीं।
कुछ पता भी नहीं,
क्या हुआ आज हम,
देवता भी नहीं, आदमी भी नहीं।
मैंने उन्हें नेह किया,
उन्होंने स्नेह किया,
प्राण से भी प्यारा पहले प्यार का ये प्यारापन।तब मैं विचरती थी,
अब मैं भटकती हूं,
मुझको कचोटता है मेरा ये बंजारापन। राधे के व्यथा की कथा कोई नहीं जानता है,
सिर्फ वही जानता है मेरा ये बिचारापन।
छोड़ ब्रजधाम श्याम गए जिस शाम,
उस शाम से ही बढ़ गया आसुंओं का खारापन।
बड़ी छल-कपट में महान थी,
बड़ी आन-बान, शान थी,
वो जुबान एक दुकान थी,
जो वचन से अपनी पलट गई।
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मैं कहानियों में रही नहीं,
मेरा पैर है ना है सर कहीं,
वो हवा भी एक बला सी थीमेरा पृष्ठ-पृष्ठ पलट गई।
उम्र का ज्ञान ध्यान होने दो,
कामना को कमान होने दो।ब्याह लाएंगे तुम्हारी पीड़ा,
दर्द को नौजवान होने दो।
राग लाया हूं, रंग लाया हूं,
गीत गाती उमंग लाया हूं।
मन के मंदिर में आपकी खातिर,
प्यार का जल-तरंग लाया हूं।
काजू भूने प्लेट में,
व्हिस्की गिलास में,उतरा है रामराज,
विधायक निवास में।
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भूख के अहसास को शेरों-सुखन तक ले चलो,
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई,
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।
मैं एक पेड़ हूं चंदन का जला लो मुझको,
जिधर भी जाऊंगा खुशबू बिखेर जाऊंगा।
जितना ऊंचा कद है उतने चेहरे रखने पड़ते हैंकौन है
असली कौन है नकली कभी-कभी तो देखा कर।
अब तक मौसम की आँखों में देखे हैं बस इंद्रधनुष,
आंधी, पानी, बादल-बिजली
कभी-कभी तो देखा कर।