जैनेन्द्र कुमार

हिन्दी के युगांतरकारी सर्जक एवं चिंतक जैनेन्द्र कुमार का जन्मशती समारोह हिन्दी भवन एवं चित्र-कला-संगम के संयुक्त तत्वावधान में 9 अक्टूबर, 2004 को हिन्दी भवन सभागार में आयोजित किया गया। ‘जैनेन्द्र कुमार होने का मतलब’ विषय पर केन्द्रित इस समारोह की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कथाकार श्री निर्मल वर्मा ने की और सान्निध्य रहा वरिष्ठ साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर का। प्रमुख वक्ता थे- सर्वश्री डॉ. निर्मला जैन, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी और मृदुला गर्ग। समारोह का संचालन कथाकार-पत्रकार श्री महेश दर्पण ने किया।

जैनेन्द्र कुमार जन्मशती समारोह का विस्तृत विवरण प्रस्तुत है-

“जैनेन्द्रजी से मेरा परोक्ष परिचय उनकी मां ने करवाया। उनका उपन्यास ‘परख’ मुझे पढ़ने को मिला। बाद में उनसे प्रत्यक्ष परिचय हुआ। उनके साथ लंबा साहचर्य रहा। ‘शनिवार समाज’ की कई बैठकें हम लोगों ने जैनेन्द्रजी के निवास पर करवाईं। एक बार एक आलोचक ने उनके उपन्यास पर कड़ी आलोचना करते हुए लेख पढ़ा। उनसे पूछा गया, तो बोले-“और तो ठीक है, बस लेख में लेखक स्वयं आ गया है।” यह प्रसंग जैनेन्द्र कुमार जन्मशती समारोह के दौरान वरिष्ठ कथाकार श्री विष्णु प्रभाकर ने सुनाया।

इस समारोह के प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने कौड़ियागंज में जैनेन्द्रजी पर केन्द्रित एक स्मारक, डाक टिकट और दरियागंज की किसी एक सड़क का नाम रखने का प्रस्ताव किया। उन्होंने कहा कि जैनेन्द्र का महत्व हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थाई है। कथाकार मृदुला गर्ग ने कहा, “जैनेन्द्रजी ने निजी भाषा का आविष्कार किया। इसकी नकल कोई नहीं कर सकता। जैनेन्द्र मौन के अनन्य शिल्पी हैं। हम उनके शिल्प को कथ्य से अलग करके नहीं देख सकते।”

आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना था, “मुझे एक बात से बड़ी खीज होती थी कि हम तो प्रेमचंद और जैनेन्द्र को अलग-अलग देखते हैं, लेकिन ये खुद एक दूसरे के प्रशंसक हैं। स्वप्न में दिखे ‘त्यागपत्र’ के प्रसंग में मैं समझा कि इस उपन्यास ने कितना गहरा प्रभाव छोड़ा है। जैनेन्द्रजी का चित्रण प्रेमचंद से एकदम अलग था।”

आलोचक प्रो. निर्मला जैन ने कहा, “चिंतक, कथाकार और उपन्यासकार के रूप में जैनेन्द्रजी का व्यक्तित्व बड़ा था। हिन्दी उपन्यास साहित्य का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, कई नाम आते-जाते और छूटते रह सकते हैं, लेकिन जैनेन्द्र कुमार का नाम हमेशा बना रहेगा। ‘परख’, ‘त्यागपत्र’ और ‘सुनीता’ की त्रयी ही उनकी अक्षय कीर्ति का आधार बनी। वह समग्रता को समाहित करने वाले रचनाकार थे। स्त्री की सामर्थ्य में उनका विश्वास था।” ‘जैनेन्द्र कुमार होने का मतलब’ विषय पर केन्द्रित इस चर्चा की शुरूआत संचालक श्री महेश दर्पण ने की। उन्होंने कहा, “भारतीय कथा-जगत में जैनेन्द्र कुमार होने का एक विशिष्ट अर्थ है। उनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि और मौलिक चिंतन ने उन्हें प्रेमचंद के बाद हिन्दी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कथाकार बना दिया।”

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ कथाकार श्री निर्मल वर्मा ने कहा, “यह बात मुझे काफी समय से परेशान कर रही थी कि हिन्दी साहित्य में विचार की क्या भूमिका है ? जब हम चोर दरवाजे से किसी विचार को ठूंसने की शुरूआत करते हैं तो उपन्यास का स्वावलंबी जीवन प्रभावित होता है। साहित्य के आलोचकों को इस पर विचार करना होगा। कहानी सब विधाओं को कथा-क्षेत्र में लाती है। अगर जैनेन्द्र कहानी लिखना नहीं चाहते थे,तो क्या लिखना चाहते थे। मुझे लगता है, वह मनुष्य के रिश्तों में जीवन के सत्य को पाना चाहते थे। यह उनकी सत्य को पाने की लालसा थी। जैनेन्द्र कुमार ने अपनी कथाओं में सत्य के साथ प्रयोग किए। यहां वह गांधी के निकट होते हुए भी गांधी से काफी दूर चले गए। प्रेमचंद जैनेन्द्र से ज्यादा गांधीवादी थे।”

समारोह की शुरूआत जैनेन्द्र-साहित्य पर केन्द्रित पुस्तक प्रदर्शनी के उदघाटन से हुई। उदघाटन किया वरिष्ठ कथाकार श्रीमती मन्नू भंडारी ने। जैनेन्द्र कुमार के तैल-चित्र का अनावरण श्री विष्णु प्रभाकर ने किया। चित्र-कला-संगम द्वारा प्रकाशित ‘जैनेन्द्र चित्रावली’ का लोकार्पण श्री विष्णु प्रभाकर और श्री निर्मल वर्मा ने किया।

अंत में ‘संस्कार फाउंडेशन’ के रंगकर्मियों द्वारा जैनेन्द्र कुमार की कहानी ‘रुकिया बुढ़िया’ को सुश्री मानसी के निर्देशन में मंचित किया गया। ‘रुकिया बुढ़िया’ जैनेन्द्रजी ने सन्‌ 1932 में लिखी थी। इसमें एक ग्रामीण, सरल, निश्छल किशोरी के पुरुष-प्रेम में छले जाने की कथा व विश्वास-भंग की पीड़ा है। रुकिया जिसका वास्तविक नाम रुक्मिणी है,अपने किशोरवय में दीना के प्रेमाकर्षण में बंधकर भागकर शहर चली जाती है। केवल इस विश्वास पर कि दीना के प्रेम से वह सारा संसार जीत लेगी, लेकिन उसका यही विश्वास एक दिन दीना व चम्पो द्वारा तोड़ दिया जाता है। चम्पो के चरित्र के माध्यम से जैनेन्द्र एक और दुखती रग को खोलकर रख देते हैं कि किस प्रकार स्त्री ही स्त्री की दुश्मन हो जाती है और भ्रमरवृत्ति वाले पुरुष को त्याग से नहीं बांधा जा सकता। रुक्मिणी यहीं से जैसे ‘रुकिया बुढ़िया’ बन जाती है और अपने वात्सल्य-भाव के सहारे सारा जीवन काट देती है। मातृत्व नारी की वह शक्ति है जो उसे विकट परिस्थिति में भी जीने की प्रेरणा देती है।

लगभग पांच घंटे चले इस समारोह में जैनेन्द्रजी के सुपुत्र श्री प्रदीप कुमार सपरिवार उपस्थित थे। इनके अतिरिक्त सर्वश्री प्रभाष जोशी, राजेन्द्र यादव, पद्मा सचदेव, मैनेजर पाण्डेय, मस्तराम कपूर, मधुर शास्त्री सहित अनेक जैनेन्द्रप्रेमी उपस्थित थे।

जैनेन्द्र कुमार का संक्षिप्त परिचय

जन्मः- 2 जनवरी,1905,कौड़ियागंज,जिला अलीगढ़ (उत्तरप्रदेश)

शिक्षाः- जैनेन्द्रजी की आरंभिक शिक्षा सन्‌ 1911-18 तक ऋषभ ब्रह्‌मचर्याश्रम, हस्तिनापुर में हुई। सन्‌ 1919-20 में उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में अध्ययन किया।

सन्‌ 1911 वैशाख सुदी तीज को गुरुकुल ने उन्हें ‘जैनेन्द्र’ नाम दिया, इससे पूर्व उनका नाम आनंदीलाल था। सन्‌ 1929-30 में जैनेन्द्रजी का विवाह भगवती देवी के साथ हुआ और इसी वर्ष उनका पहला कहानी संग्रह ‘फांसी’ प्रकाशित हुआ। जैनेन्द्रजी ने अपनी लेखनी से साहित्य में कलात्मकता के साथ-साथ भारतीय सामाजिक तथा राजनैतिक परिवेश की भी गहरी पकड़ बनाई। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वे पूरे मनोयोग से जुड़े रहे। प्रेमचंद के साथ मिलकर उन्होंने लाहौर में ‘हिन्दुस्तानी सभा’ की स्थापना की, जिससे डॉ. जाकिर हुसैन तथा जोश मलीहाबादी सदस्य के रूप में जुडे रहे। इसी दौरान जैनेन्द्रजी की पुस्तकें – ‘परख’, ‘वातायन’, ‘एक रात’, ‘नीलम देश की राजकन्या’, ‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’ तथा ‘जैनेन्द्र के विचार’ आदि प्रकाशित हो चुकी थीं। डॉ. के. एम. मुनशी तथा प्रेमचंद के साथ मिलकर उन्होंने महात्मा गांधी की अध्यक्षता में ‘भारतीय साहित्य परिषद’ की भी स्थापना की। प्रेमचंद की मृत्यु के उपरांत ‘हंस’ का संपादन भी जैनेन्द्रजी ने ही किया। हंस में ‘प्रेम में भगवान’, ‘पाप और प्रकाश’ शीर्षक से उन्होंने टॉल्सटॉय की कहानियों व नाटक का अनुवाद भी किया।जैनेन्द्रजी अपने समय में महात्मा गांधी, विनोबा भावे, रवीन्द्रनाथ टैगोर, पं. जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के साथ सतत संबद्ध रहे।

जैनेन्द्र की अन्यान्य कृतियों में-‘मुक्तिबोध’, ‘सुखदा’, ‘कल्याणी’,’जयवर्धन’,’दशार्क’,’जैनेन्द्र की कहानियां समग्र’, ‘स्मृति-पर्व’,’सोच-विचार’,’परिप्रेक्ष्य’,’अकाल पुरुष गांधी’, ‘प्रेमचंदः एक कृती व्यक्तित्व’, ‘साहित्य-संस्कृति का श्रेय और प्रेय’, ‘नीति और राजनीति’, ‘समय और हम’, ‘जीवन, साहित्य और परंपराएं’, ‘गांधी और हमारा समय’, ‘संस्कृति,आस्था और तत्वदर्शन’ तथा क्युप्रिन रचित ‘यामा दि पिट’ का हिन्दी संस्करण ‘यामा’ (उपन्यास) आदि। इनमें से अधिकांश कृतियां विभिन्न भारतीय व विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। ‘त्यागपत्र’ का अनुवाद अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, चीनी, रूसी, उर्दू, स्पैनिश तथा पर्शियन में भी हो चुका है।

साहित्य पुरुष जैनेन्द्र कुमार की इहलीला तिरासी वर्ष की अवस्था में 24 दिसम्बर,1988 को समाप्त हो गई।

पुरस्कार / सम्मान

• हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद (परख-1929)
• शिक्षा मंत्रालय,भारत सरकार (प्रेम में भगवान-1952)
• साहित्य अकादमी (मुक्तिबोध,1965)
• हस्तीमल डालमिया पुरस्कार (नई दिल्ली)
• उत्तरप्रदेश राज्य सरकार (समय और हम-1970)
• पद्मभूषण (भारत सरकार-1971)
• उत्तरप्रदेश सरकार का शिखर सम्मान ‘भारत-भारती’
• मानद डी. लिट् (दिल्ली विश्वविद्यालय, 1973, आगरा विश्वविद्यालय,1974)
• हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (साहित्य वाचस्पति-1973)
• विद्या वाचस्पति (उपाधिः गुरुकुल कांगड़ी)
• साहित्य अकादमी की फैलोशिप (1974)
• साहित्य अकादमी की प्राथमिक सदस्यता
• प्रथम राष्ट्रीय यूनेस्को की सदस्यता
• भारतीय लेखक परिषद् की अध्यक्षता
• दिल्ली प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व