दिनकरजी

हिन्दी-साहित्य में अपने समय के सूर्य दिनकरजी की जन्मशती के समापन के अवसर पर हिन्दी भवन के तत्वावधान में एकअखिल भारतीय कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया। कवि-सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ राजनेता और पूर्व केन्द्रीय शिक्षा मंत्री श्री ललितेश्वरप्रसाद साही तथा अध्यक्षता की लोकप्रिय गीतकार श्री गोपालदास नीरज ने। इसमें सर्वश्री सोम ठाकुर, उदयप्रताप सिंह, कृष्णमित्र, मार्तण्ड बिरथरे, गजेन्द्र सिंह सोलंकी, यशपाल ‘यश’, विनीत चौहान और राजेश चेतन ने दिनकरजी को अपनी काव्यांजलि अर्पित की। संचालन किया ओज के युवा कवि श्री विनीत चौहान ने। कवि-सम्मेलन के प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने अतिथियों और कवियों का स्वागत करते हुए कहा कि ”दिनकरजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व किसी दायरे में बंधा हुआ नहीं था। वे ‘ओज’ के कवि माने जाते हैं, लेकिन जब दिनकरजी की ‘उर्वशी’ को पढ़ते हैं तो लगता है कि उनके एक हाथ में बांसुरी है तो दूसरे में शंख। ‘उर्वशी’ और ‘कुरुक्षेत्र’ दोनों इस बात के प्रतीक हैं।”

मुख्य अतिथि श्री ललितेश्वरप्रसाद साही ने दिनकरजी को याद करते हुए कहा कि ”मुझे विद्यार्थी जीवन में ही दिनकरजी की कविताओं से प्रेम होगया था। दिनकरजी का लालन-पालन बड़ी गरीबी में हुआ। उनकी कविताओं में जो संघर्ष दिखाई देता है, वह उनके जीवन का संघर्ष ही है। जैसे-जैसे दिनकरजी की परिस्थितियां बदलती गई, वैसे-वैसे उनकी कविता भी बदलती गई। उन्होंने अंग्रेजी राज में जब ‘हिमालय’ जैसी कविता लिखी तो सरकार को बड़ा नाग़वार गुज़रा। वे सब-रजिस्ट्रार की सरकारी नौकरी छोड़ जाएं, इसलिए उनके 4 साल में 22 बार तबादले किए गए। मैं उनके महाकाव्य ‘उर्वशी’ और ‘संस्कृति के चार अध्याय’ को दिनकरजी की अमर रचनाएं मानता हूं।”

कवियों के काव्यपाठ से पूर्व शास्त्रीय गायिका मधुरलता भटनागर ने सरस्वती वंदना के बाद अपने मधुर स्वर में दिनकरजी का ‘परिचय’ शीर्षक गीत ”ललित कण हूं या कि पारावार हूं मैं” का गायन किया। इसके बाद वरिष्ठ गीतकार श्री सोम ठाकुर ने अपनी ‘हिन्दी वंदना’ प्रस्तुत की। कवि-सम्मेलन के अध्यक्ष श्री गोपालदास नीरज ने बताया कि ”दिनकरजी शुद्ध कविता के प्रेमी थे। जब गीत को हाशिये पर कर दिया गया, तब उन्होंने ‘गीतकार की मृत्यु’ गीत लिखा।” नीरजजी ने तीसरे विश्वयुद्ध की भयावहता की ओर इशारा करते हुए जो गीत पढ़ा, उसे सुनकर सभी श्रोता भावविभोर होगए। नीरजजी ने कवि-सम्मेलन में कुछ नए दोहे सुनाए। उनकी बानगी आपके लिए-

आत्मा के सौंदर्य का शुद्ध रूप है काव्य।
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य॥
करते हैं जो देशहित निज जीवन बलिदान।
उन लोगों से ही आज तक जीवित हिन्दुस्तान॥

आज़ादी के बाद कुछ ऐसा हुआ विकास। हरियाली को दे दिया ऊसर ने वनवास॥ गीतकार श्री सोम ठाकुर ने बताया कि ”दिनकरजी के डेढ़ सौ पत्र उनके पास सुरक्षित हैं।” उन्होंने दिनकर और बच्चन की तुलना करते हुए कहा कि ”मैंने बच्चनजी को तरल से कठोर और दिनकरजी को कठोर से तरल होते देखा है।” सोमजी ने जागरण का गीत पढ़ा, जिसकी ध्रुव पंक्तियां आप भी पढ़िए।

आ न जाए कहीं नींद इतिहास को
जागरण कीजिए ! जागरण कीजिए !!
शक्ति की सीढ़ियां शांति-मंदिर चढ़ें
शंख से बांसुरी का वरण कीजिए।
लक्ष्य की डोर थामे हुए चल रहे
राहियों की डगर में न विश्राम है।
रुक गए तो मिलेंगी कहां मंजिलें
सिर्फ गति जिंदगी का सही नाम है।
वक्त के पांव टिकते नहीं हैं कभी
संचरण कीजिए ! संचरण कीजिए !!

वरिष्ठ कवि और सांसद श्री उदयप्रताप सिंह ने कवि-सम्मेलन में अपनी ताज़ा ग़ज़ल सुनाकर श्रोताओं के मन को झकझोरा। आप भी पढ़िए-

घूमे कैसे समय की तकली कभी-कभी तो देखा कर,
धूप-छांह की अदला-बदली कभी-कभी तो देखा कर।
भूख मिटा देती है अंतर अपने और पराये का,
बड़ी के मुंह में छोटी मछली कभी-कभी तो देखा कर।
पाप-पुण्य की परिभाषाएं सबकी अपनी-अपनी हैं,
माल पचाया माला जप ली कभी-कभी तो देखा कर।
पंखुरियों की रंगत-खुशबू जब फ़ीकी पड़ जाती है,
फूल से कैसे बचती तितली कभी-कभी तो देखा कर।
बहते पानी में तिनके से ज्य़ादा हम कुछ नहीं ‘उदय’,
दरिया कितनी चौड़ी-चकली कभी-कभी तो देखा कर।

दिनकरजी के साथ पढ़ी गई एक रचना भी उदयप्रताप सिंहजी ने सुनाई-

हर तरफ चुनौतियों का जाल है, जलाल है
सावधान लेखनी कहां तेरा ख़याल है।

तब जुबान कट गई थी, बोलना हराम था
दिल में आग जल रही थी बेखबर निज़ाम था।
आज पेट कट रहे हैं आसमां पे दाम है
वो उनका इंतजाम था, ये इनका इंतजाम है।

अन्य कवियों ने भी अपनी धारदार कविताएं सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। बानगी प्रस्तुत है-

शौर्य की मशाल जन-मन में जलाने वाले
क्रांति कालजयी कविवर को नमन है।
छायावाद वाली छाया हर के किया प्रकाश
राष्ट्रचेतना के लोक-स्वर को नमन है।
धर्म, संस्कृति, स्वाभिमान है तू वरदान
काव्य-सरिता के निर्झर को नमन है।
आन-बान हिन्दी-हिन्दुस्तान की बढ़ाने वाले
राष्ट्रकवि दिव्य ‘दिनकर’ को नमन है।

— गजेन्द्र सोलंकी

सच्चे स्वाभिमानी ‘दिनकर’
राष्ट्रधर्म की वाणी ‘दिनकर’
भारत मां की हर इक पीड़ा
गाते फिरे जुबानी ‘दिनकर’
राजनीति के संघर्षों में
हार कभी न मानी ‘दिनकर’
इतने निश्छल इतने पावन
ज्यों गंगा का पानी ‘दिनकर’
छह दशकों के कुल जीवन में
रच गए अमर कहानी ‘दिनकर’।

— राजेश चेतन

गद्दारों की नस्ल मिटा दे स्याही वीणापाणि दे दे,
मेरी लेखनी राणा जन्मे ऐसे गीत भवानी दे दे।

–मार्तण्ड बिरथरे

सरहद पर मां की दुआ लड़ी,
संग-संग बापू का प्यार लड़ा।
राखी के धागे साथ लड़े,
आगे बढ़कर सिंदूर लड़ा।
संबंध लड़े, अनुबंध लड़े,
खत लिख-लिख मेरा यार लड़ा।
मैं कहां अकेला सरहद पर
मेरे संग हिन्दुस्तान लड़ा।

–यशपाल ‘यश’

लोग मरते रहे खून बहता रहा,
बेबसी की कथा देश कहता रहा।
और वो सांत्वना की रटी पंक्तियां,
पत्रकारों के सम्मुख सुनाते रहे।
बेशरम रहनुमाओं से उम्मीद क्या,
जो अंधेरों में तरकस चलाते रहे।

–कृष्णमित्र

कभी-कभी मेरा मन करता है कि
मैं ईश्वर को उस चौराहे पर
लाकर खड़ा कर दूं जहां बड़े-बड़े
नेताओं की टोपियां उछाली जाती हैं।
और उससे पूछूं कि बता मेरे ईश्वर
तूने मुझे क्यों पैदा किया इस देश में,
जिस देश की नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को
बुझी हुई बीड़ी समझने लगी है।
और बुझी हुई सिगरेट को
स्वर्ग तक पहुंचने की सीढ़ी समझने लगी है।

–गोविंद व्यास

जहां शीश ले निज करतल पर युद्ध किया करते हैं,
और मान के धनी प्राण हर बार दिया करते हैं।
राजस्थानी धरा शौर्य की कथा कहा करती है,
पानी कम है मगर रक्त की नदी बहा करती है।

–विनीत चौहान

दिनकर और हिन्दीप्रेमियों से खचाखच भरे हिन्दी भवन के भव्य सभागार में अनेक विशिष्ट राज-समाजसेवी और कवि, लेखक तथा पत्रकार इस शुद्ध कविता के कवि-सम्मेलन में उपस्थित थे। उनमें प्रमुख हैं- सर्वश्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी (अध्यक्ष, हिन्दी भवन), डॉ. पी. के. दवे, राजेन्द्र मोहन, महेशचन्द्र शर्मा, इन्दिरा मोहन, वीरेन्द्र प्रभाकर, रोशनलाल अग्रवाल, संतोष माटा, जयनारायण खण्डेलवाल, आदि।

दिनकरजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व ऊर्जा, विचार, श्रृंगार एवं हुंकार के अनुपम चितेरे। काव्य-प्रतिभा के शिखर पुरुष राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार राज्य के मुंगेर जिले के अंतर्गत ‘सिमरिया’ नामक गांव में 23 सितम्बर, 1908 ई. को हुआ था। उनके पिता का स्वर्गवास उस समय होगया, जब दिनकरजी केवल दो साल के थे। दिनकरजी की प्राथमिक शिक्षा गांव में ही हुई। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा गांव के पास ‘मोकामाघाट’ से उत्तीर्ण की। दिनकरजी जब 15 वर्ष के थे तभी इनकी पहली रचना (कविता) सन्‌ 1923 में जबलपुर से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका ‘छात्र-सहोदर’ में प्रकाशित हुई थी। सन्‌ 1928 में प्रथम काव्य-संग्रह ‘विजय संदेश’ के नाम से प्रकाशित हुआ। तब से उनका लेखन-कर्म जो आरंभ हुआ, वह मृत्युपर्यन्त अनवरत चलता रहा।

दिनकरजी ने पटना कॉलेज से सन्‌ 1932-33 में बी.ए. किया और प्रधानाध्यापक हो गए। उसके बाद सीतामढ़ी में सब-रजिस्ट्रार बन गए। दिनकरजी को अपने जीवन में लगभग सोलह वर्ष सरकारी नौकरी करनी पड़ी। इन सोलह वर्षों को वे अपने जीवन की कठिन-कसौटी कहते थे। दो वर्ष के लगभग हिन्दी-प्रोफेसर भी रहे, किन्तु उसे उन्होंने सरकारी नौकरी होने पर भी सरकारी नौकरी नहीं माना। वे कहते थे कि मुझे कविता लिखने का मौका मिला ही नहीं, लेकिन ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘द्वन्द्वगीत’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘बापू’ और ‘रसवंती’ जैसी श्रेष्ठ कृतियां सरकारी नौकरी के समय में ही लिखी गईं।

सन्‌ 1950 में उन्हें मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। सन्‌ 1952 में इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। सन्‌ 1958 में ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार तथा सन्‌ 1959 में ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा गया। सन्‌ 1961 में इनका बहुचर्चित महाकाव्य ‘उर्वशी’ प्रकाशित हुआ। ‘उर्वशी’ को सन्‌ 1961-65 के बीच प्रकाशित भाषाओं के सर्जनात्मक साहित्य में सर्वश्रष्ठ माना गया तथा सन्‌ 1972 के ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया गया।

दिनकरजी के काव्य की लगभग 34 पुस्तकें जैसे रेणुका हुकांर, रसवंती, उर्वशी, कुरुक्षेत्र, चक्रवाल और अंत में ‘हारे को हरि नाम’ तथा गद्य की 27 पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिसमें-अर्द्धनारीश्वर, संस्कृति के चार अध्याय, हमारी सांस्कृतिक एकता आदि मुख्य हैं। सन्‌ 1964 में इन्हें केन्द्रीय सरकार की ‘हिन्दी समिति’ का परामर्शदाता बनाया गया। इनके जवान बेटे की मृत्यु ने इस ओजस्वी व्यक्तित्व को सहसा खण्डित कर दिया और तिरुपति के देव को अपनी व्यथा-कथा समर्पित करते हुए 24 अप्रैल, 1974 को दिनकर अस्त होगए। दिनकरजी की अन्य प्रमुख काव्य-कृतियां हैं- विजय संदेश, प्रणभंग, धूप-छांह, सामधेनी, इतिहास के आंसू, मिर्च का मजा, रश्मिरथी, दिल्ली, नीम के पत्ते, नीलकुसुम, सूरज का ब्याह, चक्रवाल, कविश्री, सीपी और शंख, परशुराम की प्रतीक्षा, आत्मा की आंखें, दिनकर के गीत, संचयिता, रश्मिलोक तथा कोयला और कवित्व।

गद्य-कृतियां हैं- मिट्टी की ओर, काव्य की भूमिका, वेणुवन, शुद्ध कविता की खोज, चित्तौड़ का साका, रेती के फूल, हमारी सांस्कृतिक एकता, संस्कृति के चार अध्याय, उजली आग, देश-विदेश, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता, धर्म, नैतिकता और विज्ञान, वट-पीपल, साहित्यमुखी, राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधीजी।