दिल्ली में हिन्दी के प्राण

हिन्दी संसार में पंडित गोपालप्रसादजी व्यास हास्य-रस के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं और साहित्य के इतिहास में उनका अपना स्थान इसी रूप में कायम रहेगा। उनकी कविताएं सरल, सुबोध, उक्ति-लाघव से युक्त और हृदय को गुदगुदाने वाली होती हैं। कवि-सम्मेलनों के वह श्रृंगार हैं। जब सम्मेलनों में थकावट या ऊब की मुद्रा उभरती है, सभापति श्री गोपालप्रसादजी व्यास के नाम की घोषणा करते हैं और व्यासजी के खड़े होते ही पहले तो तालियां बजती हैं, फिर जनता उनकी पंक्तियों पर लोट-पोट होने को तैयार हो जाती है। इस प्रकार, जिस सम्मेलन में व्यासजी पधार जाते हैं, उसकी सफलता निश्चित हो जाती है।

केवल काव्य-पाठ के द्वारा हिन्दी-प्रेम के प्रचार को लें, तो भी व्यासजी का जीवन सफल और प्रभविष्णु समझना चाहिए। किन्तु उनका जीवन एक और कार्य के कारण शक्तिशाली और महान है। वह राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेमी, सेवक और भक्त हैं तथा इस हैसियत से उन्होंने जो काम किया है, उसका प्रभाव देश की भाषा पर स्पष्ट दिखाई देता है। उनका हिन्दी-प्रेम पंडित मदनमोहन मालवीय और राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की परंपरा में पड़ता है और उन दोनों महापुरुषों के प्रति व्यासजी की भक्ति अनुपम रही है। राजर्षि के अभिनन्दन का आयोजन व्यासजी के ही परिश्रम से प्रयाग में किया गया था और राजर्षि को भेंट किया जाने वाला ग्रंथ भी मुख्यतः व्यासजी के ही परिश्रम से तैयार हुआ था।

दिल्ली के सांस्कृतिक जीवन में श्री गोपालप्रसादजी व्यास का स्थान अत्यंत स्पृहणीय है। सन् 1952 ई0 से लेकर सन् 1963 ई0 तक व्यासजी की कार्यप्रणाली उनकी क्षमता और उनके प्रभाव को मुझे अत्यंत समीप से देखने के अवसर मिले थे और हर बार उनके हिन्दी-प्रेम, लगन और अध्यवसाय को देखकर मैं श्रद्धा से गदगद हो जाता था। सच पूछिए तो दिल्ली में व्यासजी हिन्दी के सबसे जागरूक सेवक और प्रहरी हैं। जब टंडनजी जीवित थे, वह हर बार सभाएं आयोजित करने की जिम्मेवारी व्यासजी पर डालते थे और जब राजर्षि बीमार होकर दिल्ली से प्रयाग चले गए, तब भी हिन्दी-आन्दोलन के सभी मुख्य सूत्र व्यासजी के ही हाथों में रहते थे।

व्यासजी की हिन्दी-नीति संकीर्ण नहीं, उदार है। दीर्घकाल तक हिन्दी का काम करते-करते उन्हें तमाम कठिनाइयों की जानकारी हो गई है, जो हिन्दी की राह में खड़ी हैं। इन सभी कठिनाइयों के भीतर से हिन्दी के रथ को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाए, इस विषय में उनकी दृष्टि स्वच्छ है। वह मानते हैं कि अंग्रेजी के हटने पर जो जगहें खाली होंगी, वे सब की सब हिन्दी को नहीं मिलने वाली हैं, न हिन्दीवालों को उन सभी स्थानों पर हिन्दी को आसीन करने का दुराग्रह करना चाहिए। हिन्दी-प्रांतों में अंग्रेजी की सभी जगहें हिन्दी को मिलने वाली हैं, किन्तु अहिन्दीभाषी प्रांतों में अंग्रेजी को अपदस्थ करने का जिम्मा राष्ट्रभाषा पर नहीं, मातृभाषाओं पर है। इसीलिए हिन्दी की किस्मत भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ बंधी है। सभी प्रांतीय भाषाएं जिस शीघ्रता के साथ अपने-अपने क्षेत्रों में अंग्रेजी को अपदस्थ करेंगी, उसी शीघ्रता के साथ हिन्दी का सर्वदेशीय प्रचार आगे बढ़ेगा।

भाषा के विषय में दोष की भागी केवल भारत सरकार ही नहीं है, देश की सभी सरकारें अपराधी हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्रों में अंग्रेजी की जगह पर मातृभाषाओं को आने से रोक रखा है। व्यासजी हिन्दी के प्रश्न को केवल हिन्दी का प्रश्न नहीं मानते, वह उसे सभी भारतीय भाषाओं के प्रश्नों से एकाकार समझते हैं और चाहते हैं कि जैसे हिन्दीभाषी प्रांतों की जनता हिन्दी की प्रगति और विकास के लिए प्रयत्नशील है, वैसे ही सभी प्रांतों की जनता अपनी-अपनी भाषाओं की उन्नति, विकास और प्रगति के लिए उद्योग करे।

व्यासजी का स्वभाव सरल, विनोदी और कपटहीन है। वह जितने अच्छे कार्यकर्ता हैं, उतने ही अच्छे दोस्त भी हैं। उन्होंने संघर्षों के भीतर रहकर अपना विकास किया है, इसीलिए प्रत्येक संघर्षशील व्यक्ति के प्रति वह सहिष्णु और सम्मानशील हैं।

बड़ा अच्छा हुआ कि राष्ट्रपतिजी ने उन्हें पद्मश्री के अलंकरण से विभूषित किया है। किन्तु व्यासजी का असली अलंकरण तो उनका सेवा-भाव, उनकी प्रतिभा और उनकी लेखन शक्ति है। भाई गोपालप्रसादजी व्यास शतायु हों और सदैव वह उसी मस्ती से जिएं, जिस मस्ती के साथ वह संघर्षों में रहकर भी आज तक जीते आए हैं। उनकी कीर्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहे। उनकी लेखनी से गद्य और पद्य की धाराएं बराबर फूटती रहें।

व्यासजी हिन्दी के कर्मठ सेवक हैं। भगवान उन्हें और भी उत्थान दें कि व्यासजी के हाथों हिन्दी की अधिकाधिक सेवा हो सके।

(‘व्यास-अभिनन्दन ग्रंथ’ से, सन् 1966)