हिन्दी भवन द्वारा 27 फरवरी, 2003 को भारतीय लोक जीवन और लोक संस्कृति के उन्नायक साहित्य मनीषी देवेन्द्र सत्यार्थी की स्मृति सभा का आयोजन किया गया। अपने शोक संदेश में हिन्दी भवन के संस्थापक मंत्री पं.गोपालप्रसाद व्यास ने कहा-
“श्री देवेन्द्र सत्यार्थी व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में विरले और अनुपम थे। प्रथम दृष्टि में ही सत्यार्थीजी सर्वसाधारण को एक पहुंचे हुए साधु-संत सरीखे लगते थे। उनका छह फुटा चुस्त-दुरस्त शरीर ,उस पर लंबा चोगा, कवीन्द्र रवीन्द्र जैसे केश और दाढ़ी सहज में ही सबको आकर्षित कर लेते थे। सत्यार्थी यायावर थे। उन्होंने उत्तर भारत के गांवों, कस्बों और नगरों का भ्रमण सोद्देश्य किया था। प्रारंभ से ही उनके हृदय में लोक जीवन को जानने की तीव्र उत्कंठा थी। घूम-घूमकर वे लोकगीतों एवं लोककथाओं का संग्रह करते रहते थे। सत्यार्थी पंजाबी थे, परंतु बंगला, मैथिली, अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा में रची-बसी लोक परंपराओं के वे वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न जिज्ञासु साहित्यकार थे। खेद है कि उनके महत्वपूर्ण लेखन पर समीक्षकों कीशोधपूर्ण दृष्टि नहीं पड़ी है।
मेरा उनसे 40-45 साल पुराना संबंध था। वह अत्यंत मृदुभाषी और मोद-विनोदप्रिय व्यक्ति थे। उनके रूप-स्वरूप और रहन-सहन को देखकर मुझे छेड़छाड़ की आदत थी। मेरे अनेक रोचक प्रसंग हैं सत्यार्थीजी के साथ। लेकिन इस समय तो सत्यार्थीजी की दिव्यात्मा को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि ही अर्पित करता हूं। ओम शांति !”
प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर ने सत्यार्थीजी को लीजेंड बताते हुए कहा- “आज सांस्कृतिक संकट में सत्यार्थीजी को पढ़े बगैर भारतीय संस्कृति की रक्षा करना आसान नहीं होगा। सत्यार्थीजी भले ही चले जाने के बाद पहचाने जाने वाले व्यक्तित्व बन पाए, लेकिन उन्होंने जिस प्रकार लोक साहित्य के लिए काम किया वह निश्चित रूप से साहित्य के लिए आन-बान की बात है।”
स्मृति सभा के प्रारंभ में कवयित्री प्रभाकिरण जैन ने देवेन्द्र सत्यार्थी का संक्षिप्त जीवन परिचय दिया और सभा में उपस्थित हिन्दी, उर्दू और पंजाबी के अनेक साहित्यकारों ने सत्यार्थीजी के यायावर और फक्कड़ जीवन को रेखांकित करते हुए उनकी सरलता और सहजता को प्रमुख विशेषता बताया।