पहला ‘धर्मवीर स्मृति हिन्दी महिमा व्याख्यान’ 24 सितम्बर, 2001 को वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक श्री कमलेश्वर ने दिया और अध्यक्षता की प्रख्यात समाजशास्त्री डॉ0 पूर्णचन्द्र जोशी ने। व्याख्यान का विषय था- ‘भूमंडलीकरण : साहित्य और संस्कृति’। कमलेश्वरजी ने प्रस्तावित विषय पर अपना विशिष्ट व्याख्यान दिया, उसका अविकल आलेख आपके लिए प्रस्तुत है-
“भूमण्डलीकरण की बात शुरू की जाए तो सबसे पहले हम भाषा का ही सवाल ले लें – अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं का अंतरसंबंध। जब मैकॉले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरूआत की थी, तब भूमण्डलीकरण का सवाल नहीं था। अंग्रेजी सत्ता हमें विश्व- नागरिक बनाने के लिए अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही थी। उपनिवेशवादी दौर में उन्हें अपने लिए अंग्रेजी पढ़े-लिखे कारकुन चाहिए थे। इंग्लिस्तान के विधि-विधान और कानून को देश में लागू करने के लिए न्यायाधीश और वकील चाहिए थे। भारत में वकीलों का तबका ही पहला अंग्रेजी पढ़ा-लिखा तबका था। तब की अंग्रेजी शिक्षा और आज की अंग्रेजी शिक्षा में अंतर है। आज भारत की अंग्रेजी हमें अपने ही देश में व्यक्तित्वहीन बनाती है और साथ ही हमें विश्व-बाजार में विश्व-नागरिक बनाती है। भूमण्डलीकरण की स्पर्धा में यह हमारी सहायक भी है।
लेकिन भूमण्डलीकरण से अलग जब राष्ट्रीयकरण का सवाल आता है तो अंग्रेजी के कारण हमारा संपर्क और संबंध अपने ही देश के दलित, शोषित और अशिक्षित वर्ग से टूट जाता है, इतना ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में हमारी सोच का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है। ……कहे-अनकहे तरीके से, यहीं से हमारा सांस्कृतिक संकट शुरू होता है। हम विभाजित व्यक्ति बन जाते हैं। खुद अपने सांस्कारिक स्रोतों, आस्था के प्रतीकों, अपने आस-पास की संवदेनाजन्य ध्वनियों और अपने जन-सामान्य से कट जाते हैं। सच्चाई यही है कि वैश्विक बाजार की पूरी परिकल्पना उस अमीर को लेकर की गई है जो साधन-सम्पन्न है। उसे ही इस बाजार में ‘मानव’ होने का दर्जा दिया गया है। उसी के अधिकार मानवाधिकार हैं। मानव मूल्य अब गौण हो गए हैं।
इस बाजारवाद का गरीब देशों और उसके गरीब से कोई लेना-देना नहीं है। सही अर्थों और संदर्भों में यदि इस बाजारवाद और वैश्वीकरण को देखा जाय तो यह पूंजीवादी देशों के अमीरों की क्रांति है। जब इसका अपने ही देशों के गरीबों से कुछ लेना-देना नहीं है, तो हम जैसे गरीब देशों से उसका क्या सरोकार हो सकता है ?
लेकिन सरोकार है ! उसका सरोकार है हमारे बाजार से। हमारा वह बाजार जो गरीबों ने अपने पुश्तैनी धंधों और श्रम से तैयार किया है। पुश्तैनी धंधों और खेतीबाड़ी के सहारे हमारा स्वदेशी बाजार निर्मित हुआ। इसी स्वदेशी बाजार के मुनाफे पर जीने वाले वर्गों और अंग्रेजी शिक्षा के सहारे हमारा भारतीय मध्यवर्ग पैदा हुआ। यही कुलीन नौकरशाह मध्यवर्ग हमारी नीतियों और जीवित रहने के सिद्धांतों को तय और लागू करता है। यही वर्ग है जो आज भूमण्डलीकरण का स्वागत कर रहा है। जन्मना भारतीय होते हुए भी यह कर्मणा भारतीय नहीं है। इन मध्यवर्गीय घरों में चलकर देखिए तो आपको देसी-विदेशी पेंटर्स के सस्ते प्रिंट्स तो ज़रूर मिल जाएंगे, पर परिवार के पूर्वजों की तस्वीरें अब इनके घरों में नहीं मिलेंगी। मां-बाप यदि जीवित भी हुए, तो भी वे मध्यवर्गीय बाबुओं के बंगलों या कोठियों में नहीं मिलेंगे। वे गांव या कस्बे में अपनी वृद्धावस्था काट रहे होंगे। सांस्कृतिक दृष्टि से यदि देखें तो इससे हमारे पारिवारिक और सामुदायिक संबंधों के पैमाने बदल गए हैं। हमारी क्षमा, दया और करुणा के आयाम परिवर्तित हुए हैं। जिस घटना-दुर्घटना, अनाचार या अत्याचार पर बूढ़ी दादी के आंसू निकल पड़ते हैं, उसी घटना-दुर्घटना पर नातिन या पोतिन के आसूं नहीं निकलते, पोतिन या नातिन को वो आंसू तर्कसंगत नहीं लगते। इस भूमण्डलीकरण की दुनिया में क्षमा, धीरज और बर्दाश्त जैसे मूल्य तिरोहित हो गए हैं। दया अब कहां है ? करुणा के लिए हमारे मानस में जगह कहां रह गई है ? ….यही है संस्कृति का वीभत्स विरूपण !
भूमण्डलीकरण लगातार हमारी संस्कृति को विकृत करता जा रहा है। हमारे सदियों पुराने मानवीय सरोकारों और संस्कारों को तोड़ता जा रहा है…। भूमण्डलीकरण के साथ आई है स्पर्धा, मुनाफे की संस्कृति और मानवाधिकारों का मसला। सवाल यह उठता है कि मानवाधिकार किस मानव के ? स्पर्धा किसकी और किसके साथ ? मुनाफा कहां से और किसके लिए ? अभी कुछ दिन पहले अपने उत्तर भारत में यह हुआ था कि ‘ड्रॉप्सी’ नामक बीमारी एकाएक फैली थी। इस बीमारी का नाम तक पहले नहीं सुना गया था। डॉक्टरों के पास उसका कोई इलाज नहीं था। विशेषज्ञ और प्रयोगशालाएं उस बीमारी का निदान नहीं खोज पाई थीं। तब एकाएक स्वदेशी बाजार में यह खबर फैली थी कि यह मारक बीमारी सरसों के तेल के सेवन के कारण फैली है। सरसों का तेल पूरे उत्तर भारत और बंगाल का मुख्य खाद्य तेल है। शहरों में यह तेल गांवों से आता था। इसे तत्काल प्रतिबंधित किया गया। विदेशी बाजार से तेल आयात किया गया और कहा गया कि यह भूमण्डलीकरण का नतीजा और फायदा ह ै कि फौरन विदेशी खाद्य तेलों से घरेलू बाजार की आपूर्ति होगई । आज विदेशी खाद्य तेलों ने एक झटके में अपने पैर उत्तर भारत के बाजारों में जमा लिए हैं। आप कहेंगे कि यह तो बाजारी व्यवसाय का मामला है, इससे संस्कृति का क्या लेना-देना है ? इसका संस्कृति से बहुत गहरा लेना-देना है। मैं आपको बताता हूं- भारत में ही नहीं, पाकिस्तान में भी और खासतौर से उत्तर भारत में वसंत पंचमी का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। यह वह समय है जब मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है। कड़ाके की सर्दी के मौसम से पूरा उत्तर भारत धीरे-धीरे मुक्त होकर वसंत ऋतु की ओर बढ़ता है। यही वह समय होता है जब उत्तर भारत के सारे खेत सरसों के पीले फूलों का लहराता समुद्र बन जाते हैं। वसंत पंचमी का दिन ही विद्या, ज्ञान और साहित्य की देवी सरस्वती की पूजा का दिन होता है…..साहित्योत्सव का दिन !
लेकिन जबसे सरसों के खुले तेल पर पाबंदी लगी है तबसे किसान ने सरसों उगाना लगभग बंद कर दिया है। यह कहना तो ग़लत होगा कि उत्तर भारत में अब सरसों नहीं उगती, पर आपको यह बताना ग़लत नहीं होगा कि उत्तर भारत की सभी भाषाओं में जो वसंत के गीत लिखे जाते थे, वे अब नहीं लिखे जाते। ……गांव के करघों पर जो सूती कपड़ा बनता था, उसके कुर्ते पीले रंग में रंगकर वसंत के दिन पहने जाते थे। यहां तक कि मध्यवर्गीय कुलीन भी कम से कम अपना रुमाल पीले रंग में रंग लेते थे। लेकिन अब बाजारवाद के चलते सिंथेटिक कपड़ों पर कोई देशी रंग नहीं चढ़ता। कृषि प्रधान भारत में अब बच्चे सरसों के खेत देखते हैं तो खुश तो बहुत होते हैं, पर यह भी पूछते हैं कि इतने सुंदर खेत किस चीज़ के हैं ? बसंत पर सरस्वती पूजा और लेखनी की पूजा की परिपाटी तो अब भी निभाई जाती है, पर साहित्य, ग्रामीण सभ्यता, प्रकृति के साथ जो उत्सवधर्मी तादात्म्य था, वह अब खंडित हो चुका है। यही संस्कृति की क्षति है।
उत्तर भारत की तमाम भाषाओं की कविता में संदर्भ बिन्दु बदल गए हैं। अब आप आज की कविता को देशज, क्षेत्रीय और भारत के प्राकृतिक संदर्भों और पुरातन प्रतीकों से नहीं समझ सकते। देशज संदर्भ और बिम्ब अब कविता में नहीं हैं। अब हम उन्हें उन देशों के कवियों की कविता के संदर्भों से ही समझ सकते हैं जो भूमण्डलीकरण वाले देशों के कवि हैं या वे आज के कवि जो भूमण्डलीकरण की अवधारणा को समर्थन देते और विकसित करते हैं।
हम अपने बादलों, मौसमों, बिम्बों, रंगों, हवाओं, प्रतीकों, छवियों, दृश्यों, भावनाओं, मूल्यों, देशज अनुभवों और प्रश्नों से इतने कट गए हैं कि वे हमें संवेदित और उद्वेलित नहीं करते। वे हमारी आस्था और सौन्दर्य को उत्प्रेरित नहीं करते। भूमण्डलीकरण ने हमें अपने निजी और आंतरिक सौंदर्य से विकेन्द्रित किया है। हमें हमारी सर्जनात्मक अंतश्चेतना से विस्थापित किया है।…. हम खुद वह नहीं रह गए हैं जो हमें होना चाहिए था। हम खुद को सिर्फ शीशे में पहचान पाते हैं या गोष्ठियों-सेमिनारों में। हम खुद को अपनी परिपुष्ट परम्परा के प्रवाह में न तो देख पाते हैं, न पहचान पाते हैं। भूमण्डलीकरण ने यही त्रासदी हमें दी है। आप खुद ही अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए कि आप अपने घर-परिवार, सामुदायिक, जातीय या राष्ट्रीय किस उत्सव में अंदर तक डूबकर, तन्मय होकर शामिल हुए हैं ? कभी आपने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? क्यों हमने अपनी परम्परा और विरासत की संचित स्मृतियों को त्याग रखा है ? क्यों हम अपनी संवदेनाओं को लेकर कृपण होगए हैं ? बाजारवाद की गलाकाट स्पर्धा और मुनाफे की हत्यारी संस्कृति हमें यही दे सकती है। भारत के उन गांवों को देखिए जहां अभी पेयजल नहीं पहुंचा है, वहां भी बहुराष्ट्रीय निजी कम्पनियों का कोक और पेप्सी पहुंच चुका है। सच पूछिए तो हम संस्कृति के रेगिस्तान में नहीं, बल्कि श्मशान में रह रहे हैं। हम एक बंजर होती हुई संस्कृति का यशोगान कर रहे हैं।
दोस्तो, इन हालात के लिए दोषी हम ही हैं। हमने अपनी आधुनिक क्रांतिकारिता के चलते खुद अपने उस धर्माश्रित सहिष्णु अतीत का निरादर किया, जो जनसामान्य और लोकजीवन की गहरी और सनातन स्मृति का हिस्सा था। हमारा वह धर्माश्रित सहिष्णु अतीत धर्मांध नहीं था। हमने जनभाषाओं का तिरस्कार किया और राजनीतिक मुहावरों की भाषा बोलने लगे। हम रेस्तराओं और बिस्तरों पर क्रांति करने लगे। हम अपनी घरेलू जनभाषाओं से परहेज़ करने लगे। नतीजा यह हुआ कि इस देश के जनसामान्य की चेतना और स्मृति को उन धर्मांध कट्टरपंथियों ने पकड़ लिया जो अशिक्षित और दिशाहीन विपन्न वर्ग की आस्था का इस्तेमाल करके आज एक देशज अप-संस्कृति पैदा कर सके हैं। भूमण्डलवादियों और इन देशज अप-संस्कृतिवादियों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। उन्हें मुनाफा चाहिए, इन्हें सत्ता चाहिए। पूरी दुनिया के आर्थिक नक्शे पर देखिए- वे शक्तियां जो औद्योगिक क्रान्ति के बाद औपनिवेशिक शक्तियों के रूप में स्थापित हुई थीं, उन्होंने योजनापूर्वक स्वावलम्बी, स्वदेशी अर्थ-व्यवस्थाओं का विनाश किया, मात्र अपने उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए। आज विचार के क्षेत्र में भी यही हो रहा है। बाजारवादी शक्तियां स्थानीय अप-संस्कृतिवादियों को बढ़ावा दे रहीं हैं।
मैं अप-संस्कृति की एक मिसाल पेश कर सकता हूं। बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि का जो मसला हिन्दुत्ववादियों ने उठा रखा है ,वह इन अप-संस्कृतिवादियों द्वारा निर्मित और प्रचारित गलत इतिहास का हिस्सा है। इतिहास और साहित्य का साक्ष्य यह है कि जहां बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया, वह भगवान राम का जन्मस्थान था, प्रमाणित नहीं है। आदिकवि बाल्मीकि के राम भगवान या अवतार थे ही नहीं। वे अयोध्या के राजा दशरथ के युवराज थे। उनकी पुराकथा किसी विद्वेष को जन्म नहीं देती। राम भारतीय मानस के आदर्श पुरुष हैं, जिन्हें महाकवि तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम बनाकर ईश्वरीय अवतार के रूप में निरूपित किया। बाबर ने भारत पर 16वीं सदी में आक्रमण करके भारत का साम्राज्य हस्तगत किया था। भारत के मुसलमान बादशाह इब्राहिम लोदी को पानीपत के युद्ध में परास्त करके बाबर उसकी राजधानी आगरा पहुंचा था।
सोलहवीं सदी से पहले ही भगवान कृष्ण हमारे एक हिन्दू अवतारी ईश्वर के रूप में स्थापित और पूजित थे। तुलसीदास की रामायण से पहले भगवान राम अवतारी ईश्वर के रूप में स्वीकृत नहीं थे। सोलहवीं सदी के मध्य तक उत्तर भारत में राधाकृष्ण के मंदिरों की स्थापना और पूजा तो इतिहास सम्मत है, परंतु राम के अवतारी ईश्वर होने और उनके मंदिरों की स्थापना का कोई साक्ष्य इतिहास और पुरातत्व के पास मौजूद नहीं है। यदि आक्रांता बाबर हिन्दू धर्म को नष्ट करने आया होता तो वह अपनी राजधानी आगरा से पचास किलोमीटर दूर भगवान कृष्ण की जन्मस्थली तोड़ता। पर अप-संस्कृतिवादियों ने यह इतिहास ईजाद किया है कि बाबर ने राम जन्मस्थान के मंदिर को तोड़कर वहां अयोध्या में मस्जिद का निर्माण करवाया था। बाबर आगरा से चलकर मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्मस्थली तोड़ने नहीं गया, पर 800 किलोमीटर चलकर उसने अयोध्या स्थित राम के जन्मस्थान मंदिर को तोड़ा, जो उसके समय तक अवतार के रूप में स्वीकृत नहीं हुए थे।
इस ऐतिहासिक और प्रामाणिक साहित्यिक सत्य को अपदस्थ करके हिन्दुत्ववादियों ने आस्थाजन्य हिन्दुओं के इतिहास की समय-सारणी को बदलकर उदारपंथी सहिष्णु हिन्दू मनुष्य को पशु मनुष्य के रूप में बदल दिया। जब इतिहास और साहित्यिक साक्ष्य के साथ यह बलात्कार हो रहा था, तब कोई प्रगतिवादी-जनवादी इसका प्रतिकार करने के लिए सामने नहीं आया………………हिन्दुत्ववादियों ने अपना बाजार स्थापित कर लिया और वे सत्ता पर काबिज होगए। हमने यह देखना ज़रूरी नहीं समझा कि बाजारवाद अपने लिए जो बाजार तैयार करता है, उसके लिए वह सांस्कृतिक मतभेदों और गफ़लतों का फायदा उठाता है। वह पहले पारिवारिक मूल्यों को समर्थन देता है, फिर पारिवारिक यथार्थ को सामुदायिक सच्चाई में बदलता है, फिर सामुदायिक अपेक्षाओं को वह राष्ट्रीय बनाता है,उसके बाद वह राष्ट्रीयता को अन्तर्राष्ट्रीयता के भुलावे में कैद करके निजीकरण यानी प्राइवेटाइजेशन का महामार्ग तैयार कर देता है।
इसके लिए ज़रूरी होता है कि केन्द्र में वह सरकार मौजूद हो जो बहुराष्ट्रवादियों के सपनों को साकार कर सके। तब निजीकरण की मुनाफाखोर शक्तियों को अकर्मण्य और भ्रष्टाचारी सरकारों से मदद मिलती है। भ्रष्टाचार, अनाचार, अपराधीकरण, जातिवाद, राजनीतिक स्वार्थवाद, भाई-भतीजावाद समाज-व्यवस्था से उठ जाता है और उसे यह लगने लगता है कि भ्रष्ट लोकतांत्रिक पद्धति से बेहतर है – निजीकरणवाली व्यवस्था, जो जवाबदेही से नहीं कतराती। शायद वही कुछ बेहतर कर सकेगी ! उद्योगों और सार्वजनिक उद्यमों को निजी कम्पनियों को सौंपने के पीछे भी यही तर्क है और यही मानसिकता काम कर रही है।
आज अपने देश की तमाम सार्वजनिक संस्थाओं में विनिवेश की प्रक्रिया जारी है। उन्हें निजी बनाया जा रहा है, इस उम्मीद में कि वे हमें अधिक विश्वसनीय सेवाएं उपलब्ध करा सकेंगी जो आम आदमी के हित में होंगी……….. लेकिन यह धारणा गलत है, क्योंकि यह सोच उस कुलीन मध्यवर्ग की सेवा करना चाहती है, जहां से वह मुनाफा कमा सके। उसके एजेण्डे में गरीब, कमजोर और पिछड़े वर्ग हैं ही नहीं। क्या किसी भी बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने कभी यह कदम उठाया है कि वह सर्दियों में ठिठुरते गरीबों के लिए सस्ते रजाई-गद्दे बना रही है या गर्मी में झुलसने वाले गरीबों के लिए बिजली के सस्ते पंखों का उत्पादन कर रही है ? मुनाफा तो यहां से भी कमाया जा सकता है, पर उतना नहीं जितने मुनाफे की उनकी हवस है।
दोस्तो ! मैंने नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री अमर्त्यसेन के सिद्धांतों को समझने की कोशिश की है। आपने भी की होगी। उन्होंने एक मानव हितैषी अर्थशास्त्र के सिद्धान्त की रचना की है। मैं उनसे सहमत भी हूं, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि अमर्त्यसेन का ‘मानव’ कौन है ? चलिए मान लेते हैं कि उनका मानव वह गरीब और मज़लूम है, जो विपन्न और अनपढ़ है, तब यह समझ में नहीं आता कि जब तक गरीब के उत्थान का दौर चलेगा, तब तक विश्व पूंजीवाद क्या करेगा ? क्या वह तब तक हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा ? आखिर पूंजीवाद और भूमण्डलीकरण की ताकतें भी तो सक्रिय रहेंगी ! तब पूंजीवादी मुनाफे की होड़, स्पर्धा और मुक्त बाजार के ढांचे में मानव हितैषी अर्थशास्त्र का दर्शन कहां फिट बैठेगा ? मानव न्याय और औसत आर्थिक समता की आधारभूत बात बाजारवादी व्यवस्था में कहां समाहित होगी ? तब अमर्त्यसेन के ‘कल्याणकारी पूंजीवाद’ की शक्ल क्या होगी ?
भारत में भूमण्डलीकरण का जो भूचाल आया है, वह ‘कल्याणकारी पूंजीवाद’ तो नहीं ही है। मुमकिन है कि विकसित पूंजीवादी देशों में वह कोई कल्याणकारी शक्ल रखता हो, पर विकासशील देशों में वह शोषक की शक्ल में ही आया है। वह कल्याणकारी नहीं, विनाशकारी है….
भूमण्डलीकरण की छतरी के नीचे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जो हमला आज हो रहा है, वह केवल हमारी अर्थव्यस्था पर नहीं है। इसे समझना ज़रूरी है। यह हमला प्रगतिकामी जीवंत भारतीय संस्कृति, परंपरा, जीवन शैली पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्ष से जैसे-तैसे विकसित होते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी है। भारत ने जो लोकतांत्रिक संविधान बनाया है, उसके अन्तर्गत बनने वाली सरकारों का स्वरूप ‘ट्रस्टी’ का है। वे सरकारें जनता की परिवर्तनकामी, न्यायपूर्ण समाज रचना के मिशन को लेकर सत्ता संभालती हैं। यह बात दूसरी है कि सत्ता संभालते ही वे गुमराह हो जाती हैं। लेकिन इसका दोष हम संविधान पर नहीं मढ़ सकते। पूंजीवादी देशों के लोकतंत्र में सरकार की संरचना और रोल अब बदल चुका है। वे सरकारें ‘ट्रस्टी’ नहीं होतीं, वे वर्ग-हितों के आधार और वायदों पर बनती हैं। अतः वे सरकारें उन्हीं वर्गों के हितों को अग्रसर करती हैं, जिनके बल पर वे सत्ता में आती हैं। उन्हीं के ‘लोक कल्याण’ को आज मानव हितैषी और कल्याणकारी पूंजीवाद का नाम दिया जा रहा है …. ऐसा कहना अमर्त्यसेन जैसे प्रगतिशील विचारक की मज़बूरी भी है, क्योंकि बाजारवादी भूमण्डलीकरण ने और कोई रास्ता छोड़ा भी नहीं है। आणविक अस्त्रों, प्रयोगशालाओं, अर्थव्यवस्था, सैनिक तंत्र, वैज्ञानिक शोध, संचार-साधनों आदि सभी पर उनका भूमण्डलीकृत एकाधिकार है। ऐसे में वैचारिक संघर्ष का एक ही रास्ता बचता है जिसे अमर्त्यसेन ने ईजाद किया है।
जानना यह ज़रूरी है कि इस बाजारवाद का जीवन दर्शन है- निर्लज्ज उपभोक्तावाद ! इसके लिए वह आज के तीव्रगामी सूचनातंत्र का सहारा लेता है। वह दस सेकंड में यह बताता है कि कोई वाशिंग मशीन आपके लिए कितनी उपयोगी है। और यहीं, अनकहे तरीके से वह हमारी समाज-रचना के उस धागे को तोड़ देता है जो हमारे समाज में हमें परस्पर पूरक बनाता है। अपने एक समकालीन अग्रज समाजशास्त्री सिद्धराजजी ढड्ढा के हवाले से कहूं तो वाशिंग मशीन के बारे में सोचते ही हमारा रिश्ता घर के धोबी से टूटने लगता है। इसी तरह उपभोक्ता संस्कृति में नई चीजों की भूख पैदा की जाती है, फिर चाहे वे चीजें जीवन के लिए ज़रूरी हों या न हों।
व्यापार का पुराना नियम था- मांग के अनुसार पूर्ति। वैश्विक बाजारवाद ने यह नियम एकदम बदल दिया है। अब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली अपना उत्पादन इस नज़रिये से करती है कि किस चीज को बनाकर अधिकतम मुनाफा बटोरा जा सकता है। फिर वह उद्योगपति अपने प्रोडक्ट की मांग पैदा करता है। ज़रूरत न हो, तो भी मध्यवर्ग उस प्रोडक्ट को खरीदने लगता है। फिर उसे लगने लगता है कि वह प्रोडक्ट उसके कुलीन व्यक्तित्व का ज़रूरी हिस्सा बन गया है।
एक उदाहरण ही काफी होगा। कॉस्मेटिक प्रसाधनों के बाजार को देखिए- हमारी आधुनिक कही जाने वाली महिलाओं के स्नानघर ,शृंगार कक्ष देखिए ! उनमें तरह-तरह के शैम्पू — बालों के लिए अलग, बदन के लिए अलग, तरह-तरह के उबटन, लोशन और साबुन ! शृंगार कक्ष में तरह-तरह की क्रीमें, चेहरे के लिए अलग, बालों के लिए अलग, शेष शरीर के लिए अलग। इसी तरह ओठों की लिपिस्टिकें सुबह, दोपहर ,शाम और रात के लिए अलग-अलग, और उनके अलग रंग, हाथ की अंगुलियों की नेलपालिश अलग, पैरों के नाखूनों की अलग, फिर परफ्यूम ! मित्र के साथ समय बिताने के लिए अलग, पति के साथ सोने के लिए अलग। और फिर इन प्रसाधनों के भी अलग-अलग ब्राण्ड !
महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने एक बार झुंझलाकर कहा था- “समझ में नहीं आता कि इतने तरह के साबुनों की जरूरत क्यों हैं ? जिससे शेव किया जा सकता है, उससे हाथ क्यों नहीं धोए जा सकते, और जिस साबुन से हाथ धोए जा सकते हैं, उससे नहाया क्यों नहीं जा सकता !” आज भारत इसी झुंझलाहट से अंदर ही अंदर ग्रस्त है। हमारा विपन्न वर्ग इस चकाचौंध से भौंचक्का है। यह बाजारवाद मात्र साधन संपन्न वर्ग को अपना उपभोक्ता ही नहीं बनाता, बल्कि साधनहीन को कुण्ठित और उग्र भी बनाता है। वह इस हीनताग्रस्त, कुण्ठित व्यक्ति में वह ग्रंथियां पैदा करता है, जो उसके उदात्त संवेगों को विकृत करती हैं। उसकी प्राकृतिक सहिष्णु भावनाओं को आक्रामक बनाती हैं ! एक लंबे फलक पर अगर इसे फैलाकर देखें तो हिंसाग्रस्त मानसिकता की अनदेखी-अनकही शुरूआत यहीं से होने लगती है…………………
इसीलिए गांधीवादी अहिंसा का सिद्धांत और मार्क्सवादी श्रम का सिद्धांत इन बाजारवादियों को रास नहीं आता। गांधीवादी स्वदेशी की परिकल्पना में स्वायत्तता भी थी, स्वावलंबन भी और श्रम भी। समाज में जो कुछ पैदा होता है वह श्रम से पैदा होता है। पैसे से चीज़ बनाई नहीं जा सकती, सिर्फ खरीदी जा सकती है।
गांधीजी के स्वदेशी का मुख्य तत्व है- स्वावलंबन, श्रम और सेवा की परस्पर पूरकता। इसमें मुनाफे के तौर पर मिलता है- न्याय, भाईचारा और अहिंसा ! जीवन के लिए सीमित ही सही, पर सम्मानजनक साधन। पर गाजे-बाजे और विज्ञापनों, भाषणों, बयानों के ज़रिए जो बाजारवाद हम पर लादा जा रहा है, वह चाहे देशज उद्योगपतियों का हो या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का, वह विज्ञापन-उत्पादन-आदतों के नियमन-खपत और मुनाफे का है। उसमें मौजूद है टेस्ट, फ्लेवर, मौज़-मस्ती और बेलगाम, निर्बाध उपभोग। फिर चाहे वह मामला संबंधों का हो, भावना और संवेदना का या सेक्स का।
इस उपभोक्तावादी उत्पादन और भोगवादी बाजारवाद से हमारे साहित्य और संस्कृति के संवेग और संवेदना के संयंत्र खण्डित हुए हैं, जिनके सहारे भारत का परिवर्तनकामी मनुष्य अब तक अपनी संस्कृति के उग्र धर्मवादी तत्वों और रूढ़ होगए पौराणिक विचारों से लड़ता रहा है। इस बनते और विकसित होते लोकतंत्र में वह दूसरे स्तर पर भी संघर्ष में शामिल है। जहां संसद और विधान परिषदों में वंचित वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक न्याय और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए लगातार कोशिशें चल रही हैं, समाजशास्त्री सिद्धराज ढड्ढा के शब्दों में “ऐसे में हमें उपभोक्ता उत्पादनों का ग्लोबलाइजेशन नहीं, बल्कि स्वदेशी उत्पादनों का ( लोकलाइजेशन) स्थानीयकरण चाहिए।”
हां, ग्लोबलाइजेशन का हम स्वागत करते हैं, यदि वह विचार, सूचना, विज्ञान के क्षेत्र में हो। क्षमा, करुणा, दया अहिंसा, संवेदना, मैत्री और शान्ति के पक्ष में हो। वह कम्पीटीटिव न होकर पूरक (कम्पलीमेंट्री ) हो ! लेकिन हो उल्टा रहा है। स्वर्ग का सपना देखते-देखते हम नरक में पहुंच गए हैं। लेकिन दोस्तो! एक लेखक ने कहा है, उसका नाम मुझे इस वक्त याद नहीं आ रहा है, कि जो जितने बड़े नरक को भोगता है, वही, सिर्फ वही उससे बड़े स्वर्ग का निर्माण कर सकता है। ….तो, इस सहस्त्राब्दी के शुरू में साहित्य और संस्कृति के इसी सपने को देखता हुआ मैं आपसे विदा लेता हूं !”
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे समाजशास्त्री डॉ0 पूरनचंद जोशी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में भूमंडलीकरण के खतरों से आगाह किया और अपनी मिट्टी और जड़ों से जुड़े रहने का आह्वान किया। सबसे पहले हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने अतिथियों का स्वागत किया और वरिष्ठ प्रशासक स्व0 धर्मवीरजी के कुछ संस्मरण भी सुनाए। हिन्दी भवन के संस्थापक मंत्री पं. गोपालप्रसाद व्यास ने समस्त आगंतुकों का धन्यवाद किया। कार्यक्रम का संचालन सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ0 शेरजंग गर्ग ने किया। साहित्य और संस्कृति से जुड़े अनेक हिन्दीप्रेमियों में सर्वश्री वीरेन्द्र प्रभाकर, राजशेखर व्यास, अमर गोस्वामी, हरस्वरूप भंवर, बेनीकृष्ण शर्मा, डॉ0 गोविन्द व्यास, दीक्षित दनकौरी, डॉ0 रामकिशोर द्विवेदी, प्रभाकिरण जैन और रंजना अग्रवाल आदि उपस्थित थे।