यदि अभी नहीं तो कभी नहीं

गोपालप्रसाद व्यास से साक्षात्कार

( डॉ. बालशौरि रेड्डी )

यदि अभी नहीं तो कभी नहीं

प्रश्न : आप भारत की अस्मिता की भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल पक्षधर ही नहीं, बल्कि 6-7 दशकों से हिन्दी के प्रचार, विकास, उन्नयन एवं कार्यान्वयन के पुरोधा भी रहे हैं, साथ ही आपने हिन्दी के प्राण महर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे भाषा-प्रेमी एवं राष्ट्रभाषा के साथ हिन्दी की श्रीवृद्धि में सक्रिय सहभागिता की और हिन्दी को प्रजातंत्र की प्रशासनिक भाषा बनाने का गांधीजी का जो सपना था, उसे साकार करने की दिशा में आपकी पीढ़ी ने जो कार्य किया, उसमें आपको कहां तक सफलता मिली ?

उत्तर : मेरा सौभाग्य है कि भारत की भाषा हिन्दी के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का आशीर्वाद मिला और राजर्षि टंडनजी ने मेरा हाथ पकड़कर हिन्दी-पथ पर मुझे अग्रसर किया। मैंने विशेष तो नहीं, लेकिन जो कुछ हिन्दी का कार्य किया वह मेरे व्यंग्य-विनोद के लेखन से जो लोकप्रियता मिली थी, उसके बलबूते पर जनता के प्रेम और समर्थन से मैं हिन्दी भाषा और अपने समय में जो जनता अंग्रेजीपरस्त एवं उर्दूमय थी, उसे हिन्दीमय बनाने की भरसक चेष्टा करता रहा। स्व. टंडनजी ने कहा था कि “दिल्ली में हिन्दी चलेगी तो वह सारे देश में प्रचलित हो जाएगी। दिल्ली राजधानी और राजनीति का केन्द्र ही नहीं, भाषा, साहित्य, संस्कृति व कला का भी केन्द्र रही है। व्यास, तुम दिल्ली को हिन्दी का केन्द्र बनाकर हिन्दी का काम करो” तो मैंने टंडनजी के आदेश पर जनता में उर्दू और प्रशासनिक क्षेत्र में अंग्रेजी का जो गढ़ थी, केन्द्रस्थ हिन्दी साहित्य सम्मेलन नामक संस्था की स्थापना करके दिल्ली में हिन्दी के काम का शुभारंभ किया। हिन्दी-हितैषी अपने कुछ साथियों सहित जिसमें कांग्रेस, जनसंघ और समाजवादी सभी तरह के लोग थे, सम्मेलन के साथ जुड़ गए। देखते ही देखते दिल्ली में चालीस हजार से ऊपर कार्यकर्ता हिन्दी-सेवा के लिए तैयार होगए। साइनबोर्डों पर हिन्दी दिखाई देने लगी। हिन्दी में टेलीफोन-डायरेक्ट्री छपने लगी। अदालती फार्म हिन्दी में छपकर तैयार होगए। सामाजिक एवं व्यापारिक संस्थानों में हिन्दी-टाइपराइटर खटकने लगे। बैंकों से लेकर सरकारी संस्थानों में आवेदन-पत्रों पर हिन्दी में हस्ताक्षर किए जाने लगे। जो दिल्ली उर्दू भाषा एवं साहित्य का गढ़ समझी जाती थी, वह हिन्दी-भाषा और साहित्य का गढ़ बन गई। मैं इसे अपना पुरुषार्थ नहीं, बापूजी का आशीर्वाद और टंडनजी के आदेश का प्रतिफलन ही मानता हूं। जहां तक प्रशासनिक क्षेत्र में सफलता का प्रश्न है, मेरे नेहरूजी से, शास्त्रीजी से, मोरारजी भाई व जगजीवन राम से निकट के संबंध थे। उन्होंने मुझे कई केन्द्रीय मंत्रालयों की हिन्दी सलाहकार समितियों का सदस्य बनाया। इन समितियों के सदस्य जहां मंत्रियों से सिर्फ अपने हित-संवर्धन की बातें किया करते थे, वहां मैंने मंत्रीगण क्या चाहते हैं और सदस्यों पर इसका क्या असर पड़ेगा, इसकी चिंता किए बिना धड़ल्ले के साथ हिन्दी के पक्ष में आवाज़ बुलंद की। इससे विभिन्न मंत्रालयों में हिन्दी-समितियों का गठन हुआ जो मंत्रालयों में हिन्दी के कामकाज की समीक्षा करने लगीं। सबसे बड़ी उपलब्धि तो आकाशवाणी से प्राप्त हुई कि विषय चाहे जो हो, आकाशवाणी से सभी उदघोषणाएं हिन्दी में होने लगीं। हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार जैसे सुमित्रानंदन पंत, भगवतीचरण वर्मा, इलाचन्द्र जोशी और उदयशंकर भट्ट आदि ही नहीं, आकाशवाणी के निदेशक-मंडल में पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे हिन्दी के प्रबल पक्षधर नियुक्त हुए। डॉ. नगेन्द्र जैसे हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक की नियुक्ति आकाशवाणी में हिन्दी के प्रचलन के लिए की गई, जिससे आकाशवाणी में हिन्दी के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ और टिप्पणियां भी हिन्दी में होने लगीं। यद्यपि आपके प्रश्न से यह बाहर की बात है, फिर भी मैं बताना चाहता हूं-जो आकाशवाणी पहले उर्दू मुशायरों का केन्द्र थी, उससे हिन्दी-कवियों की कविताएं मुखरित होने लगीं। इनमें मैथिलीशरण गुप्त, पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, दिनकर, पंतजी, बच्चनजी, नरेन्द्र शर्मा जो रेडियो पर जाना पसंद नहीं करते थे, वे प्रतिवर्ष होने वाले रेडियो कवि-सम्मेलन में भाग लेने लगे। मेरी एक और उल्लेखनीय उपलब्धि यह भी रही कि जो ब्रजभाषा मध्यकाल में सारे देश की साहित्यिक भाषा रह चुकी थी तथा जो उन दिनों साहित्य और समाज से उपेक्षित हो रही थी, उसकी आकाशवाणी में प्रतिष्ठा होगई। ‘ब्रज माधुरी’ का अलग से कार्यक्रम होने लगा। मथुरा-वृंदावन में ब्रजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए आकाशवाणी का एक केन्द्र भी खुल गया। देखादेखी आकाशवाणी से हिन्दी की अन्य प्रादेशिक भाषाओं का प्रचार-प्रसार होने लगा। उर्दू-पंजाबी ही नहीं, गुजराती, मराठी और बंगला के साथ-साथ कर्नाटक का संगीत आकाशवाणी से गुंजायमान होने लगा। दक्षिण भारत की अनेक भाषाओं के लोकगीतों, साहित्य और साहित्यकारों को रेडियो पर सम्मान मिलने लगा। जहां तक शासन की भाषा का प्रश्न है, वहां मेरी पीढ़ी द्वारा हिन्दी के आंदोलन से मात्र इतना असर पड़ा कि शासन की प्राप्ति के लिए उत्तर-दक्षिण के सभी नेताओं ने हिन्दी के महत्व को स्वीकार तो किया, उसके माध्यम से सत्ता में भी पकड़ मज़बूत की, लेकिन शासन चलाने के लिए अंग्रेजी का पल्ला ही पकड़े रहे। इसके पीछे सरकारों की नौकरशाही ने, जो अंग्रेजीपरस्त थी, हिन्दी अथवा अन्य प्रांतीय भाषाओं को पनपने ही नहीं दिया। इसलिए मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि प्रजातंत्र में हिन्दी को प्रशासनिक भाषा बनाने का जो स्वप्न गांधीजी ने देखा था, उसे पूरा करने में हमारी पीढ़ी अभी तक सफल नहीं हो सकी है। कैसी विडम्बना है कि हमारे शासकों की मान्यता यह है कि बिना अंग्रेजी के हम ज्ञान-विज्ञान में प्रगति नहीं कर सकते ! मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि फ्रांस, जर्मनी, जापान, चीन, रूस ने, जहां अंग्रेजी नहीं, अपनी भाषाएं चलती हैं, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में क्या कम उल्लेखनीय कार्य किए हैं ? तो हम क्यों अंग्रेजी का दामन थामे हुए हैं ? क्यों अंग्रेजी प्रथम और हिन्दी एवं भारतीय भाषाएं दूसरे स्थान पर हैं ? कब तक रहेंगी ? स्वदेश में स्वभाषा का गांधीजी का स्वप्न कब पूरा होगा ? स्वतंत्रता के समय में भी क्या पूरा नहीं होगा ?

प्रश्न :यह दृश्य बड़ा मार्मिक है, व्यासजी ! इसको तो सुनकर भी सिहरन हो रही है कि मां अपने बालक से मिलने के लिए कैसे-कैसे भटकती हुई आती थी। मुझे लगता है, यही पीड़ा आपके लेखन में झलकती है। जब आप पत्नीवाद, सालीवाद अपनी कविता में लाते हैं और महिलाओं को प्रवंचनाओं से भरा हुआ पाते हैं। क्या ऐसा है ?

उत्तर : एक बार की बात बताता हूं, संवत् 1981 में बड़ी जबरदस्त बाढ़ आई और एक लोकगीत प्रचलित हुआ था- “संवत् इक्यासी की साल, हाल कुछ कहा न जाता है, डूब गए सारे सात बाजार, छत्ता और नया बाजार देख दिल धड़का खाता है।” तो वह बाढ़ का पानी विश्राम घाट पर हमारा जो राधा दामोदर का मंदिर है, यद्यपि वह ऊंचाई पर है, लेकिन उसमें भी भर गया और तहख़ाने में भी पानी घुस गया। कीचड़ ही कीचड़ होगई। दीवारें फट गईं। पिताजी बाहर थे। चाचाजी ने चिट्ठी लिखी नानाजी को कि गोपाल की मां को भेज दो। नानाजी इक्के में मां को बिठाकर चल दिए। वहां भी बरसात का मौसम था। एक शालिग्राम का तालाब था जिसका पानी सड़क पर भी आगया था। घोड़ा इक्के सहित उस तालाब में घुस गया और मां लहंगा पहने हुए थी। लेकिन तैरना जानती थी, उसने नानाजी को धक्का देकर नीचे उतार दिया। वह तो बच गए, परंतु मां इक्के के साथ ही डूबती हुई चली गई। तत्काल नाना दौड़ पड़े। नानाजी, जो राजा भरतपुर के बड़े प्रिय पात्र थे, उन्होंने कहा राजा तेरी दुहाई है, मेरी बेटी डूब गई है, बचाओ उसको। राजा ने हाथी भेजा तो हाथी पर बैठकर मां लौटकर आगई। लौटकर आई तो मुझे छाती से लगा लिया। हाय ! आज मैं मर गई होती तो मेरे गोपाल का क्या होता ?

प्रश्न : अभी आप बता रहे थे कि विश्राम घाट पर जो आपका मंदिर है, उसमें पानी घुस आया था, तो विश्राम घाट के मंदिर के बारे में कुछ बताइए। वहां पंडे होते होंगे। भक्त होते होंगे। आरती होती होगी। थाल सजता होगा।

उत्तर : वह सब बंद होगया था। बाज़ार में भी पानी भर गया था। लक्ष्मीनारायणजी की ऊंची टेक पर से आरती होती थी। सब पंडे और पुजारी भाग गए थे। एक भी नहीं बचा था। बात तब की है जब दादी ने मुझे रख लिया और मां चली गई। पितृभक्त पिताजी मौन रहे, कुछ नहीं कहा। लेकिन जब मथुरा आगए और सैटल होगए तो अम्मा अपने भाई को लेकर आई। पिताजी ने कहा कि तू इतने वर्ष मुझसे अलग रही, अब तेरी पवित्रता पर मैं कैसे विश्वास करूं ? अंगीठी जल रही थी, उसमें से कोयले निकालकर कहा- “हाथ पसार, तेरे हाथ पर कोयला रखकर देखता हूं , जल जाएगी तो समझूंगा कि तू भ्रष्ट है, नहीं जलेगी तो तू सती है।” मां ने हाथ पसार दिए और वो कोयला राख होकर गिर पड़ा और जब वह सत्य साबित होगई तो पहला काम यह किया कि मां ने मुझे छाती से लगा लिया। हाय ! अगर मैं जल गई होती और कलंकिनी सिद्ध होगई होती तो अपने पाए हुए गोपाल को खो नहीं देती क्या ?

प्रश्न : तब आप कितने बड़े थे, व्यासजी !

उत्तर : उस समय मैं बारह-तेरह बरस का था।

प्रश्न : आपके मन में मातृभक्ति इतनी ज्य़ादा रही है, उस समय आप अपने आपको इस योग्य पाते थे कि पिता से अपनी मां के पक्ष में कुछ कह सकें ?

उत्तर : पिताजी के सामने बोलने का साहस मुझमें नहीं था, लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि मैं कितना अभागा हूं कि मां का प्यार न पा सका। वह बीमार रहती थी। मैं न उसकी कोई सेवा कर सका, न देखभाल। उसने गोपाल-गोपाल कहते-कहते ही प्राण छोड़ दिए, लेकिन गोपाल ऐसा कर्महीन निकला कि रुग्ण मां की सेवा, सहायता कुछ नहीं कर सका।

प्रश्न : आज भी आप इतने भावुक हैं कि हम सब भावुक हो सकते हैं आपकी इस कहानी को सुनकर। व्यासजी ! इससे यह बात सिद्ध होती है कि जितने भी महान रचनाकार संसार में हैं उनको कहीं न कहीं पीड़ाओं के दंश एक से ज्य़ादा मिले हैं। मां के पक्ष से आपकी जो यह पीड़ा है, यह आपने सुख बांटकर, दूसरों को सुख देकर पूरी की। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि साली पर लिखी हुई कविता, घरवाली पर लिखी हुई कविता, पत्नीवाद, ये सब मां के प्रति जो आपकी प्रवंचनात्मक स्थितियां रही हैं, उससे हुआ है क्या ? हम थोड़ा सहज करें, क्योंकि रोने को मन कर रहा है आपकी बातें सुनकर। आपने जो पत्नीवाद वाली कविताएं लिखना शुरू कीं, वो किस ज़माने में शुरू कीं ?

उत्तर : जब अंग्रेजों का राज था। उन दिनों कोई अंग्रेजों के संबंध में चूं तक नहीं कर सकता था। जो बोलता था तो उसका मकान, दुकान, व्यवसाय सब कुर्क हो जाता था। तब मैंने पत्नी को माध्यम बनाकर कविताएं लिखीं। उन दिनों राशन पर लिखा, कंट्रोल पर लिखा- “हे मजिस्ट्रेट महाराज ! हमारी पत्नी पर कंट्रोल करो। घी, तेल, सूजी, माचिस तक पर कंट्रोल हुआ। तो ये ही क्यों बचें। प्रभुजी इसका भी कुछ मोल करो।” (पत्नी को परमेश्वर मानो)। यह पत्नीवाद नहीं है। यह तो समाज-परिष्कार था अंग्रेजों के विरुद्ध देश का, असहयोग था देश छोड़ने के लिए। धीरे-धीरे इसको लोगों ने पत्नीवाद कहना शुरू कर दिया। लेकिन कुछ आलोचकों ने इसे पत्नीवाद नहीं, परिवार-रस कहा। अब जो भी कुछ हो, आपसे मेरा अनुरोध है कि मेरी एक पुस्तक आ रही है ‘व्यंग्यायन’। उसमें मैंने पत्नी के संबंध में जो वास्तविकता है, बताई है। पत्नी मेरी नहीं, उसकी है, इसकी है, ज़माने की है, जगत की है, पुरातन नहीं, नूतन है। ऐसा लिखकर अपनी कैफ़ियत दी है।

प्रश्न : मेरी अब बात समझ में आती है और आलोचक भी एक चीज को एक स्तर तक लेते हैं और उसकी गहराई में नहीं जा पाते हैं। आपका जो ये परिवारवाद है, यह मूलतः राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम आंदोलन का एक बहुत बड़ा औज़ार था, जिसको परिवार के माध्यम से आपने सरकार तक पहुंचाने का एक उपक्रम किया। अभी तक बात हो रही थी आपकी मां के बारे में, उस बाढ़ के बारे में, जिसमें आप भी डूबे हुए थे, लेकिन बचे हुए थे और आपका बचना उनका काव्य था। उनका साया कब तक आपके ऊपर रहा ?

उत्तर : लगभग पंद्रह साल वह रही और उसको क्षयरोग होगया। उस समय क्षयरोग का इलाज नहीं निकला था। निकला होगा तो मथुरा तक नहीं पहुंचा था। पिताजी ने अस्पताल में भी भेजा। फिर उसको सबसे दूर करने के लिए एक अलग जगह में ही रखा गया। फिर मेरी नानी उसे अपने साथ लिवा ले गई। राधाकुंड में ही पैदा हुई और राधाकुंड में ही “राधे, राधे, गुपाल,गुपाल। मेरे गुपाल को बुलाओ, मेरे गुपाल को बुलाओ !” कहते-कहते उसने अपने प्राण त्याग दिए। मैं ऐसा अभागा रहा कि न तो मां की सेवा कर सका और न उसके कोई काम आ सका। क्योंकि तब मैं इस योग्य ही नहीं था। कोई नौकरी नहीं, कोई चाकरी नहीं। आवारा जीवन बिताता था। शतरंज खेलता था। चौपड़ खेलता था। कुश्ती लड़ता था। फिर जिन दिनों मैं चम्पा हाईस्कूल में पढ़ता था, तब सत्येन्द्र नाम के एक वरिष्ठ हिन्दी-विद्वान से भेंट हुई। वह बड़े प्रभावित थे मेरी कविताओं से, जो अक्सर अख़बार में छपती थीं। एक दिन मैं अखाड़े से लौट रहा था, हाथ में गजरा बंधा हुआ था। उन्होंने मुझे देखकर कहा कि “गुपाल, तुम इसके लिए पैदा नहीं हुए हो। तुम मेरे पास आओ। जो करना है, मैं करूंगा।” तो वह रात के नौ बजे से रात के ग्यारह-बारह बजे तक मुझे पढ़ाते थे। स्कूल की पढ़ाई तो दर्जा़ छह तक ही हुई। लेकिन उन्होंने ‘विशारद’ कराया, ‘साहित्य-रत्न’ कराया और ‘साहित्य संदेश’ में मुझे सह-संपादक बनाया। बाद में तो मैं संपादक ही बन गया।

प्रश्न : व्यासजी, आप मुझे बताएंगे कि आपके जो पहले रोज़गार थे, बचपन की क्रीड़ाओं के बाद, मां की गोदी से निकलने के बाद, जो आपके प्रारंभिक रोज़गार थे, वे क्या थे ?

उत्तर : पहले कम्पोजीटर था, कम्पोजीटर से प्रूफरीडरी की, प्रूफरीडरी से मशीनमैनी हुई। मशीनमैनी से कागज का ज्ञान हुआ। फिर प्रेस की कला से पूरा परिचित होगया और हां, तब हमारे यहां कचहरी में म्यूज़ियम था। इसमें प्राचीन मूर्तियां आदि अनेक अदभुत वस्तुएं रखी जाती थीं। मैंने भी उसमें सहयोग किया और मेरे द्वारा दी हुई मूर्तियां, तोरण, स्तंभ आदि आज भी नए म्यूज़ियम में सुरक्षित हैं। वासुदेवशरणजी ने मुझे सिखाया कि कागज कितने प्रकार के होते हैं। जैन-कला क्या और बौद्ध-कला क्या है ? पोद्दारजी ने मुझको अलंकार, रस, रीति, लक्षणा, व्यंजना आदि बताए। जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आदि का काव्य पढ़ा, जो साहित्य की परंपरा है। लेकिन उसका प्रयोग मैंने अपने साहित्य में नहीं किया। अनजाने में आगया हो तो आगया हो। मैंने अलंकार के लिए अलंकार नहीं लिखे। रस के लिए रस नहीं लिखा। रीति के लिए रीति नहीं लिखी और लिखा आज की परिस्थितियों पर, आज की विषमताओं पर, आज की कुमति पर, भ्रष्टाचार आदि पर।

प्रश्न : आप राष्ट्रीय आंदोलन एवं राष्ट्रभाषा के आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं और इनके साक्षी भी रहे। उस कालखंड में लोगों के मन में देश, भाषा एवं संस्कृति के प्रति जो निष्ठा और समर्पित भावना थी, वह मृगमरीचिका मात्र रह गई है। इस बदलाव का क्या कारण हो सकता है ?

उत्तर : यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मैं राष्ट्रीय आंदोलन व राष्ट्रभाषा-आंदोलन से प्रारंभ से जुड़ा रहा हूं। प्रारंभ में देश और राष्ट्रनिष्ठा के प्रति जो भावना थी, वह आज देखने में नहीं आती। मैं इस बदलाव का कारण अंग्रेजी और अंग्रेजियत को मानता हूं। अंग्रेज शासकों ने हमारे धन-वैभव और उद्योगों को ही नष्ट नहीं किया, लार्ड मैकाले की नीति ने हमारी शिक्षा को भी नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। अब समय आगया है हम चेत जाएं और क्लर्क एवं बाबू बनाने वाली शिक्षा-नीति को रोजगारोन्मुख, स्वदेश और स्वभाषा की दृष्टि से बदल डालें। यदि अभी नहीं तो कभी नहीं होगा, आज़ादी लाने वालों का सपना, सपना ही बनकर रह जाएगा और देश पतन के गर्त में गिरता ही चला जाएगा।

प्रश्न : आप महात्मा गांधीजी के अनुयायी रहे और उनके जीवन-दर्शन के पक्षपाती भी। साथ ही उसके प्रभाव में आकर आपने कतिपय रचनात्मक कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में योगदान दिया। गांधी-दर्शन की प्रासंगिकता के बारे में आप क्या सोचते हैं ?

उत्तर : आज एक ऐसा वर्ग पैदा होगया है जो गांधी-दर्शन को, उनके रचनात्मक कार्यक्रमों को वर्तमान युग में प्रासंगिक नहीं मानता और कहता है कि नए युग में गांधी प्रासंगिक नहीं रहे। मैं ऐसा नहीं मानता। गांधी-दर्शन केवल उनके युग तक सीमित नहीं था। उनके सिद्धांत शाश्वत हैं। आज भी विश्व शांति की खोज में भटक रहा है और हिंसा को लेकर परेशान है। तो केवल गांधी-दर्शन ही है जिससे उन्हें मार्गदर्शन प्राप्त होता है कि सत्य ही ईश्वर है। सर्व-धर्म-समभाव ही शाश्वत है। उनका स्वदेश-प्रेम ध्यान से देखा जाए तो विश्वप्रेम ही है। उनके उपदेश हज़रत मुहम्मद और ईसा मसीह की तरह सबके लिए हैं। उन पर चलकर सत्यरूपी सत्यस्वरूप ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। गांधी-दर्शन अध्यात्म-दर्शन है। ऐसा दर्शन जो सबको प्रिय और सबका हितकारी है।

प्रश्न : राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा के रूप में संविधान में और बाहर से भी स्थान दिलाने में हिन्दीतर भाषी प्रचारकों तथा नेताओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस संबंध में आपका क्या विचार है ?

उत्तर : यह कहना समीचीन नहीं है कि हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा बनाने में हिन्दीतर भाषा-भाषियों का कोई योगदान नहीं है। इसके विपरीत सच्चाई यह है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा और संविधान में राजभाषा बनाने में अहिन्दीभाषियों का महत्वपूर्ण योगदान है। मुझे उस समय की याद आ रही है जब संविधान बनाया जा रहा था तो राजर्षि टंडन ने राजधानी में एक ‘राजभाषा व्यवस्था परिषद’ बनाई थी, जिसका एक मंत्री मैं भी था। उस परिषद में हिन्दीतर भाषा-भाषी विद्वान, न्यायविद्, संविधान-विशेषज्ञ उपस्थित हुए थे। सभी ने सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव संविधान-निर्मात्री सभा को भेजा था। यह प्रस्ताव जब संसद में विचारार्थ आया तो केवल एक मत विरोध में पड़ा जो नेहरूजी का था, जो हिन्दी प्रदेश का नेतृत्व करते थे, लेकिन अंग्रेजी के हिमायती थे। मुझे कहने दीजिए कि यदि गुजराती-भाषी गांधीजी और बंगलाभाषी सुभाषचंद्र बोस व रवीन्द्रनाथ ठाकुर एवं मराठीभाषी तिलक ने राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपना समर्थन न दिया होता तो हिन्दी आज जहां है वहां भी नहीं होती। आज तो हिन्दी न राजभाषा है, न राष्ट्रभाषा। अब तो यह जोड़भाषा बन गई है। इस जोड़भाषा को मैं तोड़भाषा मानता हूं। इसी ने अंग्रेजी को रानी और हिन्दी को नौकरानी बना दिया। बाबू जगजीवनराम कहा करते थे कि “पहले अंग्रेजी तो जाए। अंग्रेजी गई तो हिन्दी आई समझिए।” परंतु उनको क्या कहा जाए जो अंग्रेजी को नवयुग के नए ज्ञान-विज्ञान की भाषा मानते हैं कि अंग्रेजी के बिना हम अज्ञानी और अविज्ञानी बनकर रह जाएंगे। यह कितना बड़ा भ्रम है ! फ्रांस, जर्मनी, रूस, चीन और जापान जैसे देशों में जहां अंग्रेजी कोई नहीं जानता, उन्होंने जैसी सर्वांगीण उन्नति स्वभाषा में की वह जगज़ाहिर है। भारत अपनी स्वभाषाओं के द्वारा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति क्यों नहीं कर सकता ? एक दिन अवश्य आएगा कि जब वह स्वभाषा के द्वारा सर्वांगीण उन्नति करके रहेगा।

प्रश्न : विश्व में चीनी भाषा के पश्चात्‌ हिन्दी बोलने वालों की संख्या अधिक है। चीन ने अपने राष्ट्र के भीतर अपनी भाषा को अस्मिता की भाषा और अपनी धरती की भाषा के रूप में दर्ज़ कराया और वहां के नेता जहां भी जाते हैं अपने देश की भाषा में बोलते हैं और इसमें अपने लिए गौरव और गर्व की अनुभूति का अनुभव करते हैं। ऐसी भाषाओं में अरबी, फ्रेंच जैसी भाषाएं वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में व्यवहार की भाषा बनी हैं और हम लोग ‘विश्व हिन्दी सम्मेलनों’ में प्रस्ताव-मात्र पारित करते जाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में तत्काल हमें कौन-सा कदम उठाना चाहिए जिससे हिन्दी विश्व की भाषाओं की पंक्ति में मान्यता प्राप्त कर सके ?

उत्तर : आपका प्रश्न उचित है कि विश्व की तीसरी बड़ी भाषा होने पर भी हिन्दी अभी तक संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा क्यों नहीं बन सकी ? इस संबंध में दोष सरकार का उतना नहीं, जितना कि हमारे अंग्रेजीपरस्त अंग्रेजीदां साहब लोगों का है कि उन्हें क्या देश में, क्या विदेश में हिन्दी बोलने में शर्म आती है और वे उन देशों में भी जहां के लोग अंग्रेजी नहीं जानते, वहां भी अंग्रेजी में बोलते हैं। जहां तक वर्तमान सरकार का प्रश्न है, आजकल वह ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ में ही नहीं, भारत के प्रधानमंत्री जिन-जिन देशों में जाते हैं, वहां की सरकारों और जनसभाओं को प्रेरित करते रहते हैं कि वे संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी के पक्ष का समर्थन करें और आशा की जानी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को उसकी जनसंख्या के आधार पर ही नहीं, उसकी सहज ‘सुबोध’ सहजगम्यता के कारण हिन्दी अपने को प्रतिष्ठित कर सकेगी। परंतु इस संबंध में मुझे गांधीजी का कथन स्मरण आ रहा है। बापू कहा करते थे कि “जब कोई लड़का अपनी मां को अंग्रेजी में पत्र लिखता है या कोई लड़की अंग्रेजी फटाफट बोलकर पति के मित्रों के सामने यह सिद्ध कर सके कि वह सभ्य है, पढ़ी-लिखी है तथा जब हमारे शिष्टमंडल और विदेशों में हमारे राजदूत अंग्रेजी बोलकर यह जताने की कोशिश करते हैं कि भारत की भाषा अंग्रेजी है, तब मैं सोचता हूं कि भारत की संस्कृति किधर जा रही है ?” आवश्यकता इस बात की है कि हम राजदूतों और विदेशों में जाने वाले शिष्टमंडलों को पासपोर्ट इस शर्त के साथ जारी करें कि वे हिन्दी का प्रयोग करेंगे, तभी भारतीय संस्कृति और उदात्त जनभावनाओं को विश्व में प्रचारित कर सकेंगे। यह तभी संभव है जब हम प्रारंभ से ही अपने लड़के-लड़कियों को हिन्दी में शिक्षित और दीक्षित कर सकेंगे। परंतु हो रहा है आजकल इसके विपरीत। हम अपने बच्चों को कॉन्वेन्ट या पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजीपरस्त बनाने के लिए अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च करके लगे हुए हैं। आजकल हमारे देश में साक्षरता का प्रचार बढ़ रहा है। यदि लोगों को पहले प्रारंभ से ही हिन्दी में साक्षर बनाया जाए तो हम अंग्रेजी के कुचक्र से बच सकते हैं, अन्यथा अंग्रेजी चल रही है और चलती रहेगी। क्या हमारी सरकार या जनता मेरे इस आग्रह की ओर ध्यान देने का कष्ट करेगी ? उन्हें करना चाहिए, इसी से देश की भाषा, साहित्य, संस्कृति और कलाओं का निखिल विश्व में प्रचलन हो सकेगा, जिससे दुनिया के लोग परिचित होना चाह रहे हैं। हालत यह है कि विश्व के देशों में तो हिन्दी का प्रचलन बढ़ रहा है। लोग हिन्दी पढ़ रहे हैं, बोल रहे हैं। पत्र-पत्रिकाएं हिन्दी में निकल रही हैं। यहां तक कि लोग हिन्दी में कविता, कहानी, उपन्यास लिखकर हिन्दी का सम्मान बढ़ा रहे हैं। परंतु हमारे देश में हिन्दी की पुस्तकों से अधिक अंग्रेजी पुस्तकों की खरीद बढ़ रही है और हम हिन्दी के बजाय अंग्रेजी में ही रचनाएं लिखकर स्वभाषा की लज्जाजनक उपेक्षा कर रहे हैं। यह अत्यंत शोचनीय है। इसके लिए समाज को बदलने का प्रयत्न करना चाहिए।

प्रश्न : सूचना प्रोद्यौगिकी के भूमंडलीकरण तथा कम्प्यूटरीकरण के युग में उसके अनुरूप हिन्दी को ढालने में कौन-से उपाय कारगर सिद्ध हो सकते हैं ?

उत्तर : मुझे यह कहने में कोई दुविधा नहीं है कि आधुनिक विज्ञान, सूचना और प्रोद्यौगिकी, भूमंडलीकरण और कम्प्यूटरीकरण के युग में मुझे पत्रकार होने के नाते सूचना-भर है। परंतु प्रारंभ से ही मैं विज्ञान और गणित में सदा फेल होता रहा हूं तथा प्रोन्नति प्राप्त करके उत्तीर्ण होता रहा हूं। मुझसे साहित्य के विषय में पूछिए। कलाओं के विषय में पूछिए। संगीत के विषय में जानिए। पुरातत्व और भारत-विद्या के बारे में मेरी थोड़ी गति है। आधुनिक तकनीक और विज्ञान में मेरी कोई पैठ नहीं है। क्षमा करें, मुझे जिन विषयों की पर्याप्त जानकारी नहीं है, उनका मिथ्या-ज्ञान बघारकर मैं लोगों को भ्रमित करने की धृष्टता नहीं कर सकता। परंतु मैं इतना तो कह सकता हूं कि जब तक कोई भाषा अपने युग की तकनीक से नहीं जुड़ेगी, तब तक उसके विकास की संभावनाएं क्षीण ही बनी रहेंगी।

प्रश्न : आप लेखन की ओर कैसे प्रवृत्त हुए ? उन प्रेरणा के स्त्रोतों पर प्रकाश डालिए। प्रत्येक रचनाकार आरंभ में कविता की ओर प्रवृत्त होता है फिर अपनी रुचि की विधा का चयन करता है। आप किन-किन विधाओं में अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करने में अधिक सफलता की संतुष्टि अनुभव करते हैं ?

उत्तर : लेखन से मैं कैसे जुड़ा-इस सुखद प्रश्न का उत्तर मैं अवश्य देने की चेष्टा करूंगा। मैं प्रारंभ से ही कविता, जो उस समय ब्रजभाषा में की जाती थी, से जुड़ा रहा हूं। मेरी कक्षा के शिक्षक प्रो. सत्येन्द्र जो भाषा, साहित्य और आलोचना के माने हुए विद्वान थे तथा मुझ पर बड़े कृपालु थे। उनकी कृपा से मैं लेखन, समालोचना और पत्रकारिता के क्षेत्र में आगे बढ़ने की ओर अग्रसर हुआ। तदनंतर हिन्दी-जगत के जाने-माने आलोचक, व्यंग्य-विनोदकार बाबू गुलाबराय के साहचर्य और निर्देशन से मैं लेखन व संपादन के क्षेत्र में कदम बढ़ा सका। फिर तो देवदास गांधी, बनारसीदास चतुर्वेदी और धर्मवीर भारती ने कह-कहकर, लिख-लिखकर मेरा हौसला बढ़ाया और मेरी रचनाएं उनके पत्रों में ही नहीं, सभी पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। यहां तक की लिखते-लिखते मैंने पचासों पुस्तकों की रचना कर डाली। जहां तक मेरी संतुष्टि का प्रश्न है तो मुझे परम संतोष व्यंग्य-विनोद लिखने से ही प्राप्त होता है। इस विधा में मैंने कविताएं भी लिखी हैं। इसी के द्वारा मुझे साहित्य में यत्किंचित मान-सम्मान मिला है।

प्रश्न : नवरसों में हास्य का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन को आह्‌लादमय बनाए रखने में हास्य की भूमिका प्रशंसनीय रही है। आपकी दृष्टि में सारस्वत के सृजन में हास्य की कैसी भूमिका या प्रयोजन है ?

उत्तर : मेरी मान्यता यह है कि हास्य जीवन की सुखद अनुभूति है, ज़िदगी है, ज़िदादिली है, तन-मन का स्वास्थ्य है। आज के त्रस्त और दुःखी जीवन के लिए संजीवनी बूटी है। मैंने जगह-जगह कहा भी है कि, “हास्य सोने की अंगूठी, व्यंग्य सांवरौ नगीना है।” हास्य को तो प्राचीन साहित्यशास्त्रियों ने नवरसों में महत्वपूर्ण स्थान दिया है, लेकिन व्यंग्य तो आजकल जनजीवन में मान्यता प्राप्त कर गया है। साहित्यशास्त्री उसे लक्षणा, व्यंजना, वक्रोक्ति आदि में ही रखकर संतुष्ट हो जाते हैं। वे उसकी महत्ता को अभी तक परख नहीं पाए हैं। मेरे विचार से हास्य बिना व्यंग्य के सूना है और व्यंग्य बिना हास्य के अर्थहीन है। इन दोनों का समन्वय साहित्य के विकास के लिए बहुत आवश्यक है। इससे दोनों विधाएं साहित्य और समाज में समादृत हो सकती हैं।

प्रश्न : हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य के मध्य किस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है ? सही मायने में हिन्दी को भारत-भारती के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कौन-सा कदम उठाना चाहिए ?

उत्तर : हिन्दी और भारतीय भाषाओं के सामंजस्य से ही भारतीय भाषाओं में सौमनस्य पैदा हो सकता है, देश की सांस्कृतिक एकता सुदृढ़ हो सकती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि अनुवाद की क्षमता का विकास किया जाए। प्रादेशिक साहित्य हिन्दी में अनूदित हो और हिन्दी-साहित्य प्रादेशिक भाषाओं में अनूदित हो तो भारतीय साहित्यिक संपदा विश्व में समादृत हो सकती है। इसके संबंध में हमारी प्रादेशिक भाषाएं तो हिन्दी-साहित्य को अपनी-अपनी भाषाओं में परोस रही हैं, लेकिन हिन्दी में प्रादेशिक साहित्य को लाने के प्रयास नहीं हो रहे, जो होने चाहिए। इसके लिए अहिन्दीभाषी स्तुत्य हैं, वंदनीय हैं। वे मेरा नमन स्वीकार करें। जय हिन्दी ! जय हिन्द !!