पंडित गोपालप्रसाद व्यास हिन्दी के गिने-चुने हास्य-व्यंग्य लेखकों में अग्रणी हैं। उनकी रचनाएं काफी लोकप्रिय सिद्ध हुई हैं। अब वे नया रंग और नया व्यंग्य लेकर आए हैं। जीवन में बहुत-सी अनमिल बातें होती हैं जिनके प्रति मनुष्य सचेत नहीं होता। आचार और विचार में असामंजस्य भी होता है। उनको विशेष रूप से लक्ष्य बनाकर कहने का कौशल कम लोगों को प्राप्त होता है। इस कौशल के अनेक ढंग हैं। विशेष प्रकार की परिस्थितियों और पात्रों के ऐसे निपुण सन्निवेश की आवश्यकता होती है कि जो अनमिल और असामंजस्य हैं वह निखरकर दृष्टिगोचर हों। व्यासजी इस कला में दक्ष हैं। उनकी यह विशेषता है कि वे परिस्थितियों का चुनाव घनिष्ठ भाव से परिचित घरेलू और रोजाना की साक्षात्कृत घटनाओं से करते हैं और पात्र ऐसे जाने-पहचाने होते हैं कि लगता है, रोज ही उनसे मिलना-जुलना होता रहता है। दुकान के नफाखोर लालाजी, मुखर कविजी, धर्म-कर्म के संचालक पंडितजी, लेक्चर झाड़ने में कुशल सुधारकजी, चुनावों की पैंतरेबाजी के अभ्यस्त नेताजी, जैसे जाने-पहचाने पात्र उनके लक्ष्य होते हैं और इन सबसे कहीं अधिक निशाना बनते हैं गृहिणी, मामा, साला, साली, सास, आदि अत्यंत आत्मीय पात्र। सुकुमार भाव के उदगाता और प्रेमपीर के घायल कवि उनके काव्य-विडम्बना के शिकार होते हैं। स्वयं अपनी बुद्धि पर चोट करने में वे काफी रस लेते हैं। उनकी लोकप्रियता का मुख्य कारण यह अत्यंत परिचित आत्मीयता, परिस्थितियों और पात्रों का चुनाव ही है।
कम लोग अपने ऊपर व्यंग्य कर सकते हैं। दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर हंसना बहुत कष्टप्रद मालूम होता है। सड़क पर छिलका फेंककर राहगीर को फिसलने का शिकार बनाकर हंसा गया तो क्या हंसी हुई ? व्यासजी अपने ऊपर व्यंग्य कर सकते हैं। औरों के ऊपर की गई चोट आक्रोश की सीमा लांघ सकती है। उनकी सफलता ‘टाइप’ चुनने में है। जो हास्यास्पद व्यक्ति या परिस्थिति ऐसी होती है जो ‘टाइप’ के रूप में आती जाती है या जहां पर लक्ष्य व्यक्ति या किसी के निजी परिवेश की निश्चित परिस्थिति होती है, वहां वह कभी-कभी कटुता और कभी-कभी आक्रोश बन जाता है। व्यासजी में प्रायः इस प्रकार की कटुता या आक्रोश नहीं पाया जाता।
कम लोग अपने ऊपर व्यंग्य कर सकते हैं। दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर हंसना बहुत कष्टप्रद मालूम होता है। सड़क पर छिलका फेंककर राहगीर को फिसलने का शिकार बनाकर हंसा गया तो क्या हंसी हुई ? व्यासजी अपने ऊपर व्यंग्य कर सकते हैं। औरों के ऊपर की गई चोट आक्रोश की सीमा लांघ सकती है। उनकी सफलता ‘टाइप’ चुनने में है। जो हास्यास्पद व्यक्ति या परिस्थिति ऐसी होती है जो ‘टाइप’ के रूप में आती जाती है या जहां पर लक्ष्य व्यक्ति या किसी के निजी परिवेश की निश्चित परिस्थिति होती है, वहां वह कभी-कभी कटुता और कभी-कभी आक्रोश बन जाता है। व्यासजी में प्रायः इस प्रकार की कटुता या आक्रोश नहीं पाया जाता।
हास्य की एक कचोटने वाली विधा भी है, जहां हंसी का लक्ष्यीभूत पात्र हंसाकर भी कचोट उत्पन्न करता है। मनुष्य हंसकर भी मानवीय संवेदना से पसीजता रहता है। व्यासजी इस ओर नहीं गए। मुझे उनके इस ओर बढ़ने से प्रसन्नता होती, क्योंकि उनके व्यक्तित्व में यह संभावना दिखाई देती है। वस्तुतः उन्मुक्त और अनासक्त मस्ती ही इस प्रकार के द्रावक हास्य की उदगम भूमि है और व्यासजी में वह है।
व्यासजी निरंतर गतिशील रहे हैं। ‘गंभीर’ बनने की सलाह देने वालों की वे पहले ही खबर ले चुके हैं, परंतु वे जिस ‘गंभीरता’ के विरोधी हैं, उसका सीधी भाषा में अर्थ होता है-मक्कारी, कृत्रिमता, असहज भाव। उनके मौजी व्यक्तित्व से मानवीय संवेदना को रूप देने वाले गांभीर्य का विरोध नहीं है। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि वे निरंतर आगे बढ़ते जाएं और हास्योद्रेचक अनमिल परिस्थितियों के आवरण में ढंकी पीड़ा का उदघाटन करते हुए अपने मौजी व्यक्तित्व के न्यायसंगत लक्ष्य तक अधिकाधिक सफलता के साथ पहुंचें।
(‘रंग, जंग और व्यंग्य’ से सन् 1966)