श्री किशन सरोज – 28 मई, 2009

नई दिल्ली। हिन्दी-काव्य की वाचिक परंपरा के उन्नायक एवं हिन्दी भवन के संस्थापक स्व0 पं0 गोपालप्रसाद व्यास की चतुर्थ पुण्यतिथि 28 मई, 2009 के अवसर पर हिन्दी भवन सभागार में आयोजित ‘काव्ययात्रा : कवि के मुख से’ कार्यक्रम के अंतर्गत वरिष्ठ और लोकप्रिय गीतकार श्री किशन सरोज ने एकल काव्यपाठ किया।

श्री किशन सरोज ने तरल संवेदना, मधुर शब्द-संयोजन और चित्रात्मक बिम्बों और प्रतीकों से सजे-संवरे गीतों को अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत करके काव्यप्रेमियों से खचाखच भरे सभागार में सभी का मन मोह लिया। काव्यपाठ से पहले श्री किशन सरोज ने व्यासजी के चित्र पर गुलाब की पंखुड़ियां अर्पित करके अपनी श्रद्धांजलि दी और कहा कि पं0 गोपालप्रसाद व्यास ने सन्‌ 1963 में पहली बार लाल किले के राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में बुलाया था। इसके बाद मुझे देशभर में कवि सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा।

श्री किशन सरोज ने अपनी जीवनयात्रा और काव्ययात्रा से जुड़े कई सस्मरण भी सुनाए। श्री सरोज ने अपने जो आठ गीत सुनाए, उनके चुनिंदा अंश आपके लिए प्रस्तुत हैं-
*******************************

नागफनी आंचल में बांध सको तो आना
धागों बिंधे गुलाब, हमारे पास नहीं।
हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोए, आधे जागे
थोड़े सुख के लिए उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे।
कहां-कहां हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब हमारे पास नहीं।
(‘गुलाब हमारे पास नहीं’ गीत से)

*********************************

छोटी से बड़ी हुईं तरुओं की छायाएं,
धुंधलाईं सूरज के माथे की रेखाएं,
मत बांधो आंचल में फूल, चलो लौट चलें,
वह देखो ! कुहरे में चंदन-वन डूब गया !

कौन कर सका बन्दी रोशनी निगाहों में ?
कौन रोक पाया है गंध बीच राहों में ?
हर जाती संध्या की अपनी मजबूरी है,
कौन बांध पाया है इंद्रधनुष बांहों में ?
सोने-से दिन, चांदी जैसी हर रात गई,
काहे का रोना, जो बीती सो बात गई,
मत लाओ नयनों में नीर, कौन समझेगा ?
एक बूंद पानी में एक वचन डूब गया !
(‘चंदन वन डूब गया’ गीत से)

*******************************

धर गए मेंहदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल-सा हिलता रहा मन।
तुम गए क्या
जग हुआ अंधा कुआं,
रेल छूटी, रह गया
केवल धुआं;
गुनगुनाते हम भरी आंखों
फिर सब रात,
हाथ के रूमाल-सा हिलता रहा मन।
(‘ताल-सा हिलता रहा मन’ गीत से)

*******************************

नीम-तरु से फूल झरते हैं,
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है !

वृक्ष, पर्वत, नदी,
बादल, चांद-तारे,
दीप, जुगनू, देव-दुर्लभ
अश्रु खारे।
गीत कितने रूप धरते हैं
तुम्हारा मन नहीं छूते
बड़ा आश्चर्य है !
(‘बड़ा आश्चर्य है’ गीत से)

******************************* *******************************

फिर लगा प्यासे हिरन को बान,
नदिया के किनारे।
बान लगते ही सघन वन
धूपिया मरुथल हुआ
थरथराईं घाटियां
सब ओर कोलाहल हुआ।
प्यास का बुझना नहीं आसान,
नदिया के किनारे।
(‘नदिया के किनारे’ गीत से)

*******************************

है बहुत भीड़ यहां एक किनारे रहिये।
दिल लरज़ता है, ज़रा पास हमारे रहिये।
चांद-सूरज की नहीं मेरे अंधेरों को तलाश।
आप बस यों ही, मेरी आंख के तारे रहिये।
आपकी शोख़ लटों-जैसा बिखर जाऊंगा
कुछ दिनों तो मुझे जूड़े-सा संवारे रहिये।
मैं सियाही के समंदर से गुज़र जाऊंगा
दूर से बन के दिया करते इशारे रहिये।
कुछ न कुछ तो समझेगी नदी भी ऐ’किशन’!
काग़ज़ी किश्तियां पानी में उतारे रहिये।

(‘एक किनारे रहिये’ – ग़ज़ल)

*******************************

कर दिए, लो, आज गंगा में प्रवाहित,
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिंत रहना।
धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल, पर्वत होगया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समुंदर
पा तुम्हारा दुख, तथागत होगया मन,
अश्रु-जन्मा, गीत-कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिंत रहना।

(‘तुम निश्चिंत रहना’ गीत से)

*******************************

नींद सुख की फिर हमें सोने न देगा
यह तुम्हारे नैन में तिरता हुआ जल।
छू लिए भीगे कमल
भीगीं ऋचाएं
मन हुए गीले
बहीं गीली हवाएं।
है बहुत संभव, डुबो दे सृष्टि सारी
दृष्टि के आकाश में घिरता हुआ जल।
(‘नींद सुख की’ गीत से)

*******************************

इस समारोह के मुख्य अतिथि श्री राजनारायण बिसारिया थे और अध्यक्षता की श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने। कार्यक्रम के प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने हिन्दी-काव्य की वाचिक परंपरा के इतिहास और महत्व पर प्रकाश डाला। डॉ. कीर्ति काले ने समारोह का संचालन किया।

दो घंटे तक चले श्री किशन सरोज के गीतों को सुनने राजधानी और आसपास के अनेक कवि, लेखक, पत्रकार और काव्यप्रेमी सभागार में उपस्थित थे।