हंसो तो व्यासजी की तरह

पंडित गोपालप्रसाद व्यास चले गए। तिरानवे साल तक खींचा। हंसा। हंसाया। मस्ती की। साहित्य के ऐलीट दरबारों में नहीं आए। पॉपुलर हिन्दी-जनक्षेत्र में रहे। कवि सम्मेलनिया रहे। ठाठ से रहे। ऐलीट चिंतकों ने उन्हें कवि नहीं माना। उन्होंने परवाह न की। अपने दंद-फंद से लगे रहे। लालकिले का कवि-सम्मेलन स्थापित किया। यह हिन्दी का उत्तर-पश्चिम भारत में पहला ऐसा सांस्कृतिक जनक्षेत्र बना कि इसने कवि-सम्मेलनों को एक दर्जा़ दे दिया। कवि-सम्मेलन वाले कवियों में यह बैठ गया कि अगर लालकिले पर कविता न पढ़ी तो क्या ख़ाक कवि हुए ? यह मानक बना। व्यास ने बनाया। 

यह लेखक उन्हें निजी स्तर पर कतई न जानता था। बस उनका नाम जानता था। ‘आराम करो, आराम करो’ या ‘भाषण दो भई, भाषण दो’ जैसी कविताओं के मुखड़े मुहल्ले में, घर में सुने थे। वे उस वक्त हिट थे। काका हाथरसी, निभर्य हाथरसी मिलकर व्यासजी की तिकड़ी-सी बनती थी। इसमें व्यासजी मथुरा-वृंदावन वाले थे। काका-निभर्य हाथरसी थे। मगर थे तीनों ब्रजवासी। ब्रजभाषी। 

हिन्दी के जनक्षेत्र में भौगोलिक-भाषागत गतिविधियों को कभी अध्ययन का विषय नहीं बनाया गया। भाषागत अस्मिताएं, पहचानें, स्थानीय चिह्‌न किस तरह एक ख़ास किस्म का जनक्षेत्र बनाते रहते हैं, इसे देखा नहीं गया। कारण, वही दंभी ऐलीटिज्म़ रहा जो कवि-सम्मेलनी कविताओं को फूहड़, अश्लील, सतही, मनोरंजक, पॉपुलर मानकर चलता रहा और जो सत्ता के मानकों के पायदान पर पहरेदार रहा। यह सोचने की उसमें क्षमता ही नहीं रही कि कवि सम्मेलन एक स्तर पर ‘न्यूनतम साहित्यिक क्रिया’ करते हैं, साहित्य के संचार का ‘न्यूनतम’ आधार बनाते हैं और वाचिक संचार की उस ताकत को बताते हैं जो प्रिंट के आने से बहुत पहले से चली आती है। यह भाषा के संचार का क्षेत्र होता है। यहां रचनात्मकता होती है। सीधे सामने दसियों हजार जनता को उनकी सामान्य अभिरुचि ताड़कर संबोधित करना, उसका मनोरंजन करना, एक विराट रसिक समाज तैयार करना, एक बड़ा सामाजिक कार्य है। हमारे बचपन में यह कार्य उक्त तीन ने किया, जिनमें व्यासजी ने ज्य़ादा संगठित ढंग से किया। 

इसी संगठन क्षमता का नतीजा वह ‘हिन्दी भवन’ है जो आई.टी.ओ. जैसी केन्द्रीय जगह पर मौजू़द है। वहां पुस्तकों की एक दुकान भी है। उसके नीचे एक जन रचनाकार सचमुच बैठा मिलता है। उसकी किताबें उसकी दुकान पर सजी मिलती हैं। वह चाय बेचता है। लेकिन लिखता है। यह ‘हिन्दी भवन’ का रूपक है। हिन्दीवाले संस्थानों को खाने-पचाने और ख़त्म करने में यकी़न करते हैं, बनाने में नहीं। गोपालप्रसाद व्यासजी ने खाया-पीया नहीं होगा, ऐसा वे भी न मानते। लेकिन खाने-पीने के बाद भी ‘हिन्दी भवन’ को बनाना न भूले। यह एक स्थायी महत्व का काम हुआ। हिन्दीवाले स्वनामधन्य दंभी रचनाकारों को इसका महत्व समझना चाहिए।

एक वर्कशॉप में सोम ठाकुर से मुलाकात हुई। सोम ठाकुर इन दिनों उत्तर प्रदेश का हिन्दी संस्थान देखते हैं। वे बेहद सुरीले कवि रहे हैं। अब भी वैसा ही कंठ है। इस लेखक ने अपने छात्र जीवन में उनके कंठ से अनेक गीत सुने हैं। मुलाकात के दौरान इसने सुझाया कि सोमजी को अब कवि-सम्मेलनों के इतिहास और समाजशास्त्र पर कुछ शोधकार्य योजना तैयार करनी चाहिए। बात ‘हिन्दी भवन’ में ही हो रही थी। वे इसके लिए तैयार थे। यह कार्य हिन्दी भवन भी कर सकता है। यह ‘हिन्दी-जनक्षेत्र’ के समाजशास्त्र को देखने-समझने वाला काम है।