हिंदी भक्ति साहित्य : ऐतिहासिक – सांस्कृतिक विमर्श

हिंदी भवन में 28 और 29 जनवरी-2025 को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। इस संगोष्ठी का विषय था – “हिंदी भक्ति साहित्य : ऐतिहासिक -सांस्कृतिक  विमर्श”

इस संगोष्ठी में प्रथम दिन के पहले सत्र की अध्यक्षता कुलदीप अग्निहोत्री ने की। इस सत्र के मुख्य अतिथि के रूप में सुधांशु त्रिवेदी,मुख्य वक्ताओं में अनिल राय, रामेश्वर राय, माधव गोविंद आदि ने भक्तिकाल के उदय और विकास को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए उस दौर के सांस्कृतिक बदलावों पर भी आपने विचार रखे। भक्तिकालीन आंदोलन के सामाजिक ,राजनैतिक,धार्मिक, ऐतिहासिक आदि अनेक अनछुए पहलुओं पर अपनी बात रखी।

पहले दिन का दूसरा सत्र “संत काव्य के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य” पर केंद्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता वेद प्रकाश सिंह ने की। मुख्य वक्ताओं बजरंग बिहारी तिवारी,दिनेश चारण, सुशीला शक्तावत, आद्या सक्सेना आदि ने संत काव्य की आधार भूमि पर उस दौर के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों गहन पड़ताल की।

दूसरे दिन का प्रथम सत्र “सूफ़ी काव्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य” विषय पर आधारित था। इस सत्र की अध्यक्षता जानकी प्रसाद शर्मा ने की। इस सत्र के वक्ताओं रजीउद्दीन अकील, अदिति चौधरी, बबली परवीन आदि ने उस समय के तत्कालीन इतिहास को जानने -समझने पर बल दिया।दूसरे दिन के द्वितीय सत्र का विषय ” सगुण काव्य: ऐतिहासिक -सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य” था। इस सत्र की अध्यक्षता ज्योतिष जोशी ने की। इस सत्र के मुख्य वक्ताओं चंदन कुमार,विनय विश्वास, चन्द्रकांत सिंह,रामजी उपाध्याय,रेखा पांडेय आदि ने सगुण और निर्गुण के विवादों को उस समय की ऐतिहासिक दृष्टि के आधार पर रेखांकित किया।

इस दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी की सार्थकता इस बात पर रही कि भक्ति साहित्य के ऐसे अनछुए पहलुओं को ऐतिहासिक तथ्यात्मकता के साथ सामने लाना है, जो भारतीय जनमानस के मन में कभी न कभी प्रश्नों के रूप में सामने आ जाते हैं। 14वीं सदी से 17वीं सदी के दौर का वैविध्यपूर्ण इतिहास रहा है। इसी विविधता को ध्यान में रखते हुए हिंदी और इतिहास विभाग ने ऐसे विषय की पड़ताल करके नए तथ्यों को सामने लाने की योजना बनाई।जिसका प्रतिफलन यह राष्ट्रीय संगोष्ठी है। यह संगोष्ठी भक्तिकाल की अनेक बहसों को साहित्य और इतिहास दोनों अनुशासनों के माध्यम से परखने की महत्वपूर्ण कोशिश है। किसी भी दौर के साहित्य को समझने के लिए उस समय के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पक्षों की पड़ताल करना बेहद जरूरी है। इस काल खंड को इतिहासकार और साहित्यकार अपने अपने नजरिए से देखते रहे। इन दोनों नजरियों को एक साथ लाने का काम इस संगोष्ठी की उपादेयता थी। इस उपादेयता का ही यह प्रतिफलन है कि यह संगोष्ठी बेहद सफल रही है।