‘हिन्दी का समाजशास्त्र’ – प्रो. अरुण दिवाकरनाथ वाजपेयी

धर्मवीर स्मृति हिन्दी महिमा व्याख्यानमाला के अंतर्गत मंगलवार, 9 दिसंबर, 2008 को छठा व्याख्यान ‘हिन्दी का समाजशास्त्र’ विषय पर अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (म.प्र.) और महात्मा गांधी चित्रकूट विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. अरुण दिवाकरनाथ वाजपेयी ने दिया। इसकी अध्यक्षता की भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली के प्रो. प्रमोदकुमार चौबे ने। प्रो. सुषमा यादव, आचार्य, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली ने विषय प्रवर्तन किया। समारोह के मुख्य अतिथि थे कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल एवं हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथजी चतुर्वेदी। प्रस्तुत है प्रो. वाजपेयी के व्याख्यान का अविकल आलेख-

“परम श्रद्धेय श्री त्रिलोकीनाथजी चतुर्वेदी, अध्यक्ष, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली एवं पूर्व राज्यपाल, कर्नाटक। आदरणीय प्रो. प्रमोदकुमार चौबे, आचार्य अर्थशास्त्र, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली। आदरणीय प्रो. सुषमा यादवजी, आचार्य, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली तथा गोविन्द व्यासजी तथा अन्य उपस्थित अत्यंत संभ्रांत, समादृत विद्वत्जन।

“सर्वप्रथम, मैं इस कार्यक्रम की संयोजिका प्रो. सुषमा यादवजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं कि उन्होंने मुझे पूर्णरूपेण अपात्र होते हुए भी इस व्याख्यान के योग्य समझा तथा आप सबके सम्मुख अपने कुछ विचार प्रकट करने का अवसर प्रदान किया। प्रारंभ में ही मैं अपनी सीमाएं स्वीकार करता हूं। प्रथमतः मैं हिन्दी का कोई आधिकारिक प्रकांड विद्वान नहीं हूं और न ही कोई श्रेष्ठ वैज्ञानिक। मेरा उद्देश्य भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल या डॉ. नगेन्द्र की भांति हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रस्तुत करना नहीं है और न ही आगस्ट काम्ट, दुरखैम, मैक्स वेवर, सारोकिन इत्यादि की भांति समाजशास्त्र की परिभाषा देना। मेरा उद्देश्य ‘हिन्दी के समाजशास्त्र’ विषय पर बड़े-बड़े संदर्भों और भारी-भरकम उद्धरणों को उद्धृत करते हुए कोई शोधपत्र लिखना भी नहीं है।

“मेरे प्रस्तुत व्याख्यान में मात्र इतना लक्ष्य है कि हिन्दी जो हमारी राष्ट्रभाषा है, वो भारतवर्ष के समाज और सामाजिक व्यवस्थाओं को आत्मसात्‌ करने और अभिव्यक्त करने में कितनी सफल रही है ? हिन्दी और हिन्दी का उपयोग करने वाले चिंतक, दार्शनिक एवं साहित्यकारों में कितनी एकरूपता रही है, इसका भी उल्लेख प्रस्तुत व्याख्यान में करने का प्रयास करूंगा। साथ ही भारतीय समाज के मूलस्वर उदघाटित करने में हिन्दी की उपयोगिता की चर्चा करना भी मेरा प्रयास होगा। संक्षेप में जिस तरह से मैं भारतीय समाज को थोड़ा-बहुत समझ पाया हूं, उसकी सूक्ष्म तरंगों की हिन्दी और हिन्दी साहित्य में प्रतिध्वनि को उच्चारित करने का विनम्र उद्यम करूंगा।

“विषय प्रथम दृष्टया जितना सरल दिखता है, वस्तुतः उतना है नहीं। इसमें जहां एक ओर हिन्दी भाषा से संबद्ध मुद्दे सम्मलित हैं, वहीं दूसरी ओर समाज की व्याप्तियां, समाज में होने वाले परिवर्तनों को आत्मसात्‌ करने की क्षमता, विसंगतियों को अभिव्यक्त करने का संकल्प तथा समाज में परिवर्तन, क्रान्ति लाने का लक्ष्य हिन्दी के साथ जोड़कर प्रस्तुत करना, विषय के अंतःकरण में आविष्ट है। भाषा समाज के स्वरूप को यथावत प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण ही नहीं, अपितु उसकी समस्याओं, कुरीतियों, विसंगतियों, विडंबनाओं की शल्य चिकित्सा कर तथा उपयुक्त औषधि प्रदान कर एक स्वस्थ समाज की संरचना करना भी उसका उद्देश्य होता है।

“भाषा द्वारा मनोवेगों का यथावत चित्रण अथवा उनके विवेकपूर्ण ढंग से प्रसंस्करण तथा उदात्त रूपान्तरणों की अभिव्यक्ति के द्वंद्व का भी समाधान समाविष्ट है। इस संदर्भ में सबसे पहले भाषा पर चर्चा करना श्रेयस्कर होगा। हिन्दी क्या है ? क्या हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली वर्णमाला की क्रम व्यवस्था है या कुछ और भी ? वैसे भाषा किसी भी क्षेत्र की नागरिकता और उसके भूगोल की परिचायक होती है।

“अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ज्ञात होगा कि रूस की भाषा रशियन और नागरिकता भी रशियन, जर्मनी की भाषा जर्मन और नागरिकता भी जर्मन, चीन की भाषा चीनी और नागरिकता भी चीनी, फ्रांस की भाषा फ्रेंच और नागरिकता भी फ्रेंच इत्यादि।

“भारतवर्ष के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाएं भी इस तथ्य को सिद्ध करती हैं। ब्रज, अवधी, बघेली, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, पंजाबी, मराठी, बंगला, गुजराती, सिंधी, उड़िया, कश्मीरी, तमिल, तेलुगू, मलयालम, कोंकण प्रभृति भाषाएं अपने भूगोल, नागरिकता तथा पूरी संस्कृति को व्यक्त करती हैं। 1956 में जब प्रांतों का पुनर्गठन हुआ तब आधार तो भाषा ही था, परंतु फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा की सूक्ष्मताओं का गंभीरता से अध्ययन नहीं किया गया तथा प्रांतों का नामकरण भी अपने मूलस्वरूप के अनुसार नहीं हुआ। यदि देश-भाषा की एकरूपता की कसौटी को माना जाए तो हिन्दुस्तान में बोली जाने वाली हर भाषा हिन्दी ही होगी। हिन्दी हमारी भाषा, हिन्दी हमारी नागरिकता।

“संभवतः अल्लामा इकबाल ने यही भाव भरा था अपने बहुचर्चित राष्ट्रवादी गीत में “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा।” ‘ इसी कसौटी पर भारतवर्ष की भाषा ‘भारती’ और नागरिकता-संस्कृति ‘भारती’ होनी चाहिए।

“संभवतः जब मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ नामक ग्रंथ की रचना की उसमें ‘भारती’ संज्ञा भारत की भाषा, नागरिकता, संस्कृति सभी के लिए प्रयुक्त किया है। ‘भारत-भारती’ का स्वर हिन्दी का समाजशास्त्र है और इसीलिए गोरी सरकार विचलित हो उठी तथा उसे प्रतिबंधित कर दिया। “यदि भाषा-भूगोल की कसौटी में हिन्दी अथवा भारती को खरा मानते हैं तो भारतवर्ष में बोली जाने वाली प्रत्येक भाषा जो भारतीय मूल की है तथा जिसकी जननी संस्कृत है, वह हिन्दी अथवा भारती होनी चाहिए। अंग्रेजी तथा उर्दू भारत में बोली ज़रूर जाती हैं, परंतु वे भारतीय मूल की नहीं हैं, इन्हें छोड़कर प्रत्येक भाषा चाहे तमिल हो अथवा तेलुगू, मलयालम, उड़िया, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी सबको हिन्दी अथवा भारती की संज्ञा देनी चाहिए और एक साथ भाषायी विवाद का समाधान कर देना चाहिए। साथ ही जो भाषाएं संस्कृत से उपजी हैं तो ‘सहोदरा’ भाव से परस्पर स्वीकार्यता संभव है। आवश्यकता इस दिशा में सार्थक पहल करने की है।

“लॉर्ड ग्रियर्सन को भारत में भाषायी सर्वेक्षण तथा लेखन का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने काम तो अच्छा किया, परंतु साथ ही भाषायी मतभेदों को स्थापित करने का श्रेय भी उन्हें जाता है। जिस तरह से पाश्चात्य वैज्ञानिक, चिंतकों की पृष्ठभूमि होती है, वह बाह्‌य कलेवर को ही महत्व देते हैं, अंतःसलिला भावनाओं को नहीं। इसी तरह ग्रियर्सन ने भी भाषाओं के अंतर को तो उदघाटित किया, परंतु उनके मूलस्वर को समझ नहीं पाए और यह उनका लक्ष्य भी नहीं था।

“स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यह कार्य आवश्यक था, परंतु इस ओर अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया। राजनीतिज्ञों का भी नहीं और भाषाविदों का भी नहीं। यदि हिन्दी को भारत के मूलस्वर को अभिव्यक्त करने वाली भाषा के रूप में स्वीकारते हैं तो हिन्दी का समाजशास्त्र भारतीय समाज के मूलस्वर से स्वतः संबद्ध हो जाता है।

“अब प्रश्न उठता है कि भारतीय समाज का मूलस्वर क्या है ? भारतीय समाज का मूलस्वर आध्यात्मिकता है। भारतवर्ष की ख्याति पहले भी और आज भी विश्व में इसीलिए नहीं है कि यहां बड़े-बड़े औद्योगिक घराने हैं अथवा यहां के कुछ विद्वानों और वैज्ञानिकों ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर लिया है अथवा क्रिकेट और चलचित्र जगत ने कुछ चमकदार सितारे प्रदान किए हैं, अपितु भारतवर्ष की ख्याति इसलिए है कि यह ऋषियों का देश है, मनीषियों का देश है, चिंतकों, त्यागियों, तपस्वियों का देश है, धर्म और अध्यात्म का देश है। पूर्व में भी विश्व ज्ञान, भक्ति, दर्शन और शांति के लिए भारत की शरण में आता रहा है और आज भी आ रहा है। और अधिक गहराई से चिंतन किया जाए तो ज्ञात होता है कि दृष्टिगत आडंबर भारतीय समाज का मूलस्वर नहीं है। मूलस्वर है न दिखाई पड़ने वाला आडंबरविहीन, सूक्ष्म, सर्वसमावेशी, समन्वयकारी, सबमें एक भाव रखने वाला स्वर। “भारतवर्ष विश्वसंस्कृति का एकमात्र ऐसा देश है, जिसने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ का उदघोष किया। निज-पर के समस्त अंतरों को पाटते उदार चरितवाद को स्थापित करते हुए ऋषि ने उदघोष किया-

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

“वसुधैव कुटुम्बकम्‌ से तात्पर्य ही है कि जहां-जहां जिनमें प्राणों का संचार है-जलचर, थलचर, नभचर जिनसे जुड़कर पृथ्वी बनी है वह सब एक परिवार है। इसमें पार्थक्य का, खंड-खंड देखने की प्रवृत्ति, प्रकृति और पुरुष और उनकी विभिन्न प्रजातियों के साथ पृथक्‌-पृथक्‌ व्यवहार का सर्वथा निषेध है। समाज की इससे अच्छी परिभाषा जो हमारे ऋषियों ने दी संभवतः कोई समाजशास्त्री नहीं दे सकता। “साथ-साथ चलें, साथ-साथ बोलें और यहां तक सबके मन भी एक साथ एक जैसा सोचें। मानसिक-मनोवैज्ञानिक सोच में एकरूपता का भाव भारतीय समाज का मूलस्वर है-

सगंच्छध्वं, संवदध्वं, संवोमनांसि जानतां । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।

“एक साथ रहते हुए, एक साथ काम करते हुए कल्याणकारी वाणी का व्यवहार करने का लक्ष्य भारतीय समाज का है-

ओ३म्‌ सहनाववतु, सहनोभुनक्तु, सहवीर्यं करवावेहै तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।

“साथ-साथ रक्षा करना, साथ-साथ भोजन करना, साथ-साथ तेज को, कांति को अवधारण करना और कभी भी परस्पर द्वेष न हो, प्रतियोगिता न हो, ऐसा अनुरोध भारतीय समाज का है। “आहार, निद्रा, मैथुन, भय यह मनोद्वेग तो प्रत्येक समाज में चराचर जगत के प्रत्येक प्राणी के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इनका प्रकृतिशः व्यवहार उच्छृंखलताओं को जन्म दे सकता है। अतः मानव से अपेक्षा की गई कि वह मर्यादित-विवेकपूर्ण व्यवहार करे। मानवेतर प्रजातियों का धर्म अनुशासन है जो उसे स्वतः मर्यादित करता है, परंतु मानव के अमर्यादित होने की संभावनाएं बहुत होती हैं, इसलिए उसे धर्मानुसार, काल, स्थान उद्देश्य के अनुसार मनोद्वेगों को उदात्तीकृत करके व्यवहार करने के लिए अनुशंसित किया गया है-

आहार, निद्रा, भय, मैथुनं च सामान्येतद् पशुभिर्नराणां धर्मो तेषामधिको विशेषो धर्मेणहीनाः पशुभिसमाना।

“यहां धर्म विवेक का प्रतीक है, जीवन मूल्यों का प्रतीक है, आत्मानुशासन का प्रतीक है। इस प्रकार का मर्यादित व्यवहार दीर्घकालीन एवं सर्वव्यापी होता है। इसमें न प्रतियोगिता होती है, न असुरक्षा, न विषमता। समरस एवं सबरस समाज जिसमें सबका हित सुरक्षित होता है, जो आत्मस्फूर्त है, जिसे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने में संकोच नहीं है और न्याय के लिए मृत्यु-स्वीकार करने में प्रसन्नता होती है, जो परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करता है, परंतु समझौता नहीं। परंपराओं का पोषक है, परंतु कुरीतियों का कट्टर विरोधी है, पुरुषार्थ में विश्वास रखता है, वर्णाश्रम और संस्कारों के मर्म को समझता है। दूसरे की पीड़ा को आत्मसात करता है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरे को सुख देने में सुख का अनुभव करता है। वैज्ञानिक विवेकी निष्कर्षों को पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, धर्म और अधर्म में वर्गीकृत कर शुद्ध व्यवहार को पुरस्सर करता है।

“संक्षेप में यही है भारतीय समाजशास्त्र का मूलस्वर और जिसे हिन्दी का समाजशास्त्र कहा जाना चाहिए। चाटुकारिता, प्रशंसागीत, उपभोगवाद, स्वार्थीपन, स्वेच्छाचारिता, शोषण, अपमान, भय, अन्याय करना व सहना प्रभृति न तो भारतीय समाज के स्थापित मूल्य हैं और न ही हमारा समाजशास्त्र। इसके अतिरिक्त समाज के प्रत्येक वर्ग को भूख, गरीबी, त्रासदी, रोग, शोषण, अपमान से मुक्ति दिलाना हमारा लक्ष्य है। परंतु इसका मार्ग संघर्ष से नहीं, सहयोग से, समन्वय से निकालना हमारी व्यूहरचना है। दलितों और स्त्रियों को सम्मान मिलना चाहिए, इसमें दो राय नहीं, पर सनातनी परंपरा के अनुसार। स्वाभिमान चाहे व्यक्ति का हो, चाहे राष्ट्र का, सर्वोपरि है। उसकी सुरक्षा में प्राणों का उत्सर्ग भी श्रेयस्कर है। इसी से राष्ट्रीयता का स्वर झंकृत होता है, जो भारतीयता का स्वर है और हिन्दी का समाजशास्त्र। “हिन्दी को भारतेन्दु हरिश्चंद्र की खड़ीबोली से प्रारंभ करना अथवा उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात इत्यादि प्रांतों की परिधि में सीमित करना अथवा गद्य-पद्य की विधाओं में बांध देना अथवा मौलिक सृजन और अनुवाद के वर्गीकरण में विभक्त कर देना अथवा प्रगतिशील और अप्रगतिशील संप्रदायों में बांटना उसके साथ अन्याय करना होगा। हिन्दी एक सर्वसमावेशी भारतीय संस्कृति की कल-कल निनादिनी संवाहिका मंदाकिनी है, जो इसका जल पीने वाले, इसका दर्शन कर उसमें अवगाहन वाले का कल्याण करती है, साथ ही आसपास की परिस्थिति से सामंजस्य करते हुए उसे पुष्ट एवं कल्याणकारी बनाती है।

“हिन्दी ने प्रारंभ से ही अपने दोनों ही स्वर मुखर रखे हैं, वर्णनात्मक भी और फलनात्मक भी। एक ओर चंदबरदाई अपने रासो में पृथ्वीराज चौहान का चरित्र-चित्रण करते हैं तो वहीं दूसरी ओर गोरी पर निशाना साधने के लिए अपने कवित्त का उपयोग करने में भी नहीं चूकते। उनका दोहा अभी भी समकालीन परिस्थितियों में उद्धृत किया जाता है-

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान। ता ऊपर सुल्तान है, मत चूकै चौहान॥

“बिहारी श्रृंगार के कवि हैं। श्रृंगार के जितने आयाम बिहारी ने उदघाटित किए हैं, कोई नहीं कर सकता। पर जब उन्होंने देखा कि राजा अपने दायित्वों का निर्वहन सही ढंग से नहीं कर रहा है तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल। अली कली ही सों बिंध्यो, आगे कौन हवाल॥

“और इस कवित्त का प्रभाव पड़ा- राजा के चित्त पर। कबीर ने हिन्दी का भरपूर उपयोग किया सामाजिक विसंगतियों, विडम्बनाओं को उजागर करने में। कबीर ने हिन्दुओं तथा मुसलमानों की जितनी कुरीतियां और आडंबर हो सकते हैं उन पर कठोर प्रहार किया। मंदिर, मस्जिद, माला, अजान, मंत्र-जाप, नमाज सब पर कबीर ने कसकर चोट की और उसके पीछे छिपे हुए रहस्य को प्रगट किया। ज्ञातव्य है कि कबीर का मूलस्वर सनातनी है। वह गुरुवंदना भी करते हैं। आत्मा की सत्ता स्थापित करते हैं और सबके हित की बात करते हैं। इसीलिए कबीर निषेधात्मक होते हुए भी स्वीकार्य हैं। रसखान और अब्दुर्रहीम खानखाना हिन्दी के सशक्त कवि हैं। रसखान का मूलस्वर भक्ति है, वहीं रहीम का समाजशास्त्रीय। रहीम ने दान की महिमा स्थापित की और ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास व्यक्त किया-

दैनहार कोऊ और है, देवत है दिनरैन। लोग भरम हम पर करें ताते नीचे नैन॥

“जीवन-मूल्यों को समाज के साथ जोड़कर रहीम ने हिन्दी का उपयोग किया। यहां एक बात स्पष्ट करनी होगी कि कुछ साहित्यकारों ने हिन्दी का उपयोग अपने कवित्व को स्थापित करने के लिए तो कुछ ने मोक्ष प्राप्ति के लिए और ईश्वर से साक्षात्कार के लिए किया तो कुछ ने राजदरबार में पद, धन, यश प्राप्त करने के लिए। इनका समाजशास्त्र से अधिक सरोकार नहीं है। जब साहित्यकार व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए हिन्दी का उपयोग कर रहा है तो उसका लेखन हिन्दी के समाजशास्त्र का विषय नहीं हो सकता। उदाहरण के तौर पर सूरदास, रसखान, मीरा इत्यादि के पद पढ़ते-पढ़ते आप विभोर हो जाएंगे और आंखों से आंसुओं की झड़ी लग जाएगी-

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, या प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो, या मानुष हौं तो वही रसखान।

“इत्यादि सब व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के विस्तार हैं। इनमें समाजशास्त्रीयता नहीं है। वहीं केशवदास ने अपने पांडित्य का प्रदर्शन इतना किया कि वे ‘कठिन काव्य के प्रेत’ ही होगए। उनका समाज से क्या हिन्दीप्रेमियों से भी नाता कम होगया। हां, उनके एक दोहे ने उनके मित्र की प्रेयसि प्रवीण राय को अकबर बादशाह के चंगुल से अवश्य बचाया था-

विनती राय प्रवीण की, सुनिए वीर सुजान। झूठी पातर भखत हैं, बारी-बायस-श्वान॥

“इन सबके मध्य एक प्रबल स्वर उभरता है तुलसी का, जो वस्तुतः हिन्दी के समाजशास्त्र की कसौटी पर एकदम खरा उतरता है। तुलसी ने बहुत लिखा। दोहावली, रत्नावली, बरवै रामायण, रामलला नहछू इत्यादि, पर यह सब अधिक चर्चा में नहीं आए। सामाजिक स्वीकृति मिली उनकी कालजयी रचना ‘रामचरित मानस’ को। उन्होंने इसे 76 वर्ष की परिपक्व अवस्था में लिखना प्रारंभ किया और लगभग दो ढाई वर्ष लगे उसे पूर्ण करने में। एक क्रांतिकारी प्रयोग और धारा के विपरीत। पूर्णरूपेण सनातनी परंपरा का पोषक। समाज के प्रत्येक वर्ग का समावेश ‘रामचरित मानस’ में है।

“संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी ग्राम्य का चयन तुलसी ने किया। चाटुकारिता, प्रशस्तिगीत के स्थान पर स्वान्तः सुखाय। कृष्णभक्ति धारा के स्थान पर राम की मर्यादा पुरुषोत्तमता। शैव-शाक्त-वैष्णव, निगुर्ण-सगुण, ज्ञान-भक्ति-कर्म, पुरुषार्थ-वर्णाश्रम सबके मध्य समन्वय का काम किया तुलसी ने। पिता, पुत्र, पत्नी, मित्र, सेवक, राजा, भाई आदि। सभी के आदर्श स्थापित किए तुलसी ने। एक आदर्श राज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की। मुखिया के गुण बताए। कर्तव्य-बोध कराया। विवेक जागृत किया। अन्याय के विरुद्ध लड़ने की शिक्षा दी तुलसी ने।

“तुलसी का ‘रामचरित मानस’ हिन्दी के समाजशास्त्र का अप्रतिम उदाहरण है। भूषण ने छत्रसाल और शिवाजी के चरित्र-चित्रण के माध्यम से भारतीय स्वाभिमान जागृत करने का प्रयास अवश्य किया, परंतु उनका वह चित्रण प्रशस्ति-गायन अधिक है। पर उनका वह व्यवहार जब कवि अकबर के दरबार में जाता है और पगड़ी उतारकर सलाम करता है-राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक है। सूफियाना साहित्य जिसमें अमीर खुसरो प्रमुख हैं, उसमें भारतीय समाज का स्वर प्रस्फुटित हुआ है और हिन्दी के समाजशास्त्र का विषय है।

“महत्वपूर्ण अंतर है, मुगलकाल जिसे हिन्दी का स्वर्णकाल भी कहा जाता है, में हिन्दी का स्वर मुगल शासन विरोधी नहीं है। ब्रिटिश काल में हिन्दी का मूलस्वर ब्रिटिश शासन का विरोधी है। सारे साहित्यकार, लेखक, कवि सबका स्वर राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत है। राष्ट्रीय स्वाभिमान जागृत करने, समाज की विसंगतियों को उजागर करने, गोरी सरकार को उखाड़ने के लिए और देश में सुराज स्थापित करने के लिए हिन्दी का फलनात्मक उपयोग हुआ और श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हुआ-

उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहां जो सोवत है। जो जागत है, सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है॥

या

सर बांधे कफनवा हो शहीदों की टोली निकली।

“सबमें वही स्वर दृष्टिगोचर है। बिस्मिल की ‘सरफरोशी की तमन्ना’ उर्दू में लिखी हिन्दी-भावना है। श्यामनारायण पाण्डेय ने प्रताप को आदर्श मानकर ‘हल्दीघाटी’ में स्वाभिमान जगाया तो सुभद्राकुमारी चौहान ने ‘रानी लक्ष्मीबाई’ को आदर्श बनाया। कहने का तात्पर्य हिन्दी का समाजशास्त्र उस समय राष्ट्रीय स्वाभिमान, जागरण और स्वातंत्र्‌य समर से भरा हुआ था। छायावादी कवियों में निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी ने मानवीय संवेदनाओं को बहुत खूबसूरती से प्रगट किया है। प्रकृति से प्रेरणा लेकर समाज को सुंदर बनाने का उनका लक्ष्य सनातनी परंपरा के साथ-साथ हिन्दी का हित भी है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओं को उदात्त कर इन छायावादी कवियों ने प्रस्तुत किया, पर निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ का उल्लेख प्रासंगिक है। माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुटधर पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, वंशीधर शुक्ल, सोहनलाल द्विवेदी इत्यादि सभी राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हैं।

“सबमें वही स्वर दृष्टिगोचर है। बिस्मिल की ‘सरफरोशी की तमन्ना’ उर्दू में लिखी हिन्दी-भावना है। श्यामनारायण पाण्डेय ने प्रताप को आदर्श मानकर ‘हल्दीघाटी’ में स्वाभिमान जगाया तो सुभद्राकुमारी चौहान ने ‘रानी लक्ष्मीबाई’ को आदर्श बनाया। कहने का तात्पर्य हिन्दी का समाजशास्त्र उस समय राष्ट्रीय स्वाभिमान, जागरण और स्वातंत्र्‌य समर से भरा हुआ था। छायावादी कवियों में निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी ने मानवीय संवेदनाओं को बहुत खूबसूरती से प्रगट किया है। प्रकृति से प्रेरणा लेकर समाज को सुंदर बनाने का उनका लक्ष्य सनातनी परंपरा के साथ-साथ हिन्दी का हित भी है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावनाओं को उदात्त कर इन छायावादी कवियों ने प्रस्तुत किया, पर निराला की ‘तोड़ती पत्थर’ का उल्लेख प्रासंगिक है। माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुटधर पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, वंशीधर शुक्ल, सोहनलाल द्विवेदी इत्यादि सभी राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हैं।

“हिन्दी के समाजशास्त्र के संदर्भ में प्रेमचंद को प्रस्तुत करना आवश्यक है। प्रेमचंद का सारा लेखन ‘हिन्दी का समाजशास्त्र’ है। उन्होंने गांव की, खलिहान की, खेत की, किसान की, मज़दूर की, शोषण की, हल-बैल की, गरीबों की, दरिद्रता की, गुल्ली-डंडा की, प्रजातंत्र की, मानवीय पीड़ा की, सामाजिक संबंधों की, सामाजिक कुरीतियों की, विसंगतियों और विडंबनाओं की बातें अपनी कहानियों और उपन्यासों में की हैं। प्रेमचंद का मूलस्वर सनातनी परंपरा का है। वह संघर्ष पर नहीं, समन्वय-सहयोग पर आधारित है। “भारत में प्रगतिशील साहित्य का आरंभ लगभग 1936 में हुआ। इसके पहले अधिवेशन के मुख्य अतिथि प्रेमचंद थे। बहुत कोशिश कीं प्रगतिशील लेखकों ने कबीर, तुलसी, निराला इत्यादि को अपने खेमे में शामिल करने की, पर कर नहीं पाए, क्योंकि दोनों की आवृत्तियों में मूलभूत अंतर है। “यह तो सत्य है कि प्रगतिशील लेखकों और कवियों ने समाज की समस्याओं, विषमताओं और विसंगतियों पर बहुत लिखा, बहुत अच्छा भी लिखा। त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध, परसाई प्रभृति को श्रेय जाता है प्रगतिशील आंदोलन को बढ़ाने का। परंतु कठिनाई यह है कि प्रगतिशील लेखकों का स्वर ‘अहिन्दी’ और ‘अभारती’ है, इसलिए यह हमारा समाजशास्त्र नहीं है। इनका लेखन हिन्दी का समाजशास्त्र न होकर, रूसी समाजशास्त्र है, जो हिन्दी में लिखा हुआ है।

“उनका स्वर संघर्ष, टकराहट, दो वर्गों का निर्माण, परंपराओं की अवमानना और अपने पूर्वजों के निरादर का है। यह पूर्वाग्रह भी इन लेखकों में है, जो उन्होंने लिख दिया वही सत्य, स्वयंसिद्ध तथा सर्वमान्य है। परस्पर प्रशंसन्ति भी खूब होती है।

“भारत में समस्याए हैं, उन्हें दूर भी होना चाहिए। पर दूर करने का एक मार्ग गांधी का है और दूसरा मार्क्स का। एक सनातनी मार्ग है और दूसरा नक्सलवादी मार्ग, जो साहित्य में अपनाकर हिन्दी के समाजशास्त्र के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता। हिन्दी के समाजशास्त्र के रूप में गांधी के हरिजन में लिखे हुए लेख, उनके उदबोधन और उनकी गुजराती में लिखी आत्मकथा ‘सत्य के साथ प्रयोग’ उनका ‘हिन्द स्वराज’, सब सम्मिलित हो सकते हैं।

“स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श, साहित्य की नई शाखाएं हैं। प्रगतिशील लेखक इनके माध्यम से वर्ग संघर्ष उत्पन्न करना चाहते हैं, वह उचित नहीं हैं। मनोद्वेगों का यथावत चित्रण, उपभोक्तावाद, उपयोगितावाद और धर्म-मूल्यविहीनता भी प्रगतिशीलता की एक कसौटी है। किसने कितनी कड़वी भाषा में अपने समाज, परंपराओं और पूर्वजों को अपशब्द कहे, वह उतना ही बड़ा प्रगतिशील है ! ऐसे प्रगतिशील साहित्य और हिन्दी में किए गए साहित्यिक स्वेच्छाचार को हिन्दी का समाजशास्त्र कहना उचित नहीं होगा। दो कालजयी रचनाओं का उल्लेख करना चाहूंगा। एक तो काफ़ी चर्चा में रही-श्रीलाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’, इसमें ग्रामीण समाज के जितने आयाम हो सकते हैं, उदघाटित हुए हैं और दूसरी चर्चा में अधिक नहीं आई, पर इसका अनुशीलन होना चाहिए और वह है- द्वारिकाप्रसाद मिश्र का ‘कृष्णायन’, इसमें भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है। यह हिन्दी के समाजशास्त्र में सम्मिलित करने योग्य है।

“प्रस्तुत प्रसंग में एक बात और महत्वपूर्ण है, वह है हिन्दी के प्रयोक्तओं की। हिन्दी का स्वर, उसका प्रयोग करने वालों के चिंतन धरातल पर निर्भर करता है। जो हिन्दी का स्वर अत्यंत प्रखर और मुखर था स्वतंत्रता आंदोलन के समय, उतना आपातकाल के समय नहीं हो पाया। आपातकाल में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का नाम सुनाई देता है। इसी प्रकार विभाजन का दर्द यशपाल के अतिरिक्त अधिक सुनाई नहीं दिया। “इसी क्रम में बाज़ारवाद ने भारतीय समाज को बहुत हद तक प्रभावित किया-नई विकृतियों और विषमताओं को जन्म दिया है। मुद्रावाद, स्वेच्छाचारिता, शहरी चकाचौंध, पर्यावरण का संकट, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, प्रजातंत्रात्मक व्यवस्थाओं का क्षरण, जातीय-धार्मिक उन्माद, क्षेत्रीयता, नक्सलवाद, संपन्नता, विपन्नता, विभाजन, कृषकों, मजदूरों व आदिवासी-वनवासी की समस्याओं, छोटे-मंझोले उद्योगों का विलोपन, एटमी विभीषिकाओं, विदेशी अपसंस्कृति का प्रभाव, परिवार का विघटन और संस्कारविहीनता इत्यादि के समाचार तो छपते हैं, परंतु उन पर आधारित साहित्य-सर्जना, जिसे हिन्दी के समाजशास्त्र में सम्मिलित किया जाए, उपलब्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि हिन्दी के लगभग सभी साहित्यकार-लेखक चिंतन की अपेक्षा प्रकाशन की ओर ध्यान देने लगे हैं। पत्र-पत्रिकाएं, साहित्यिक कम, व्यावसायिक अधिक होगईं हैं। मांग के अनुसार लेखन और प्रकाशन, यही लक्ष्य होगया है। क्योंकि इसी से विक्रय और लाभ निर्धारित होता है। विज्ञापनों की राशि से प्रकाशन होता है, अतः विज्ञापनदाता और बड़े औद्योगिक घराने जो प्रकाशन-भवनों के स्वामी हैं भारत के, भारती के और हिन्दी के सत्य को सामने आने ही नहीं देते। राजनीति, क्रिकेट, चलचित्र, अपराध, आंदोलन और स्फुरणशील समाचार ही छाए रहते हैं। इसमें हिन्दी का दोष नहीं है। दोष है हिन्दी के प्रयोक्ताओं का तथा हिन्दी के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्तियों का। आवश्यकता है हिन्दी के तपस्वियों, मनीषियों और ऋषियों की जो वर्तमान यथार्थ के गरल को पीकर साहित्य-सुरसरि का सृजन करें, जिसमें सबका हित सुनिश्चित है।

“अभी हाल ही में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गई है, पर वे समाचार तक ही सीमित हैं। पहले साप्ताहिक ‘हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ जैसी अच्छी पत्रिकाएं थीं। वह बंद हो गईं। ‘कादम्बिनी’ ने हिन्दी की बहुत सेवा की है, अच्छे लेख, कविताएं और समाजशास्त्रीय अनुशीलन उसमें प्रकाशित हुए। ‘हंस’, ‘वर्तमान साहित्य’ और ‘वसुधा’ इत्यादि अपने प्रगतिशील पूर्वाग्रह को बरकरार रखे हुए प्रकाशित हो रही हैं। यहीं पर गीता प्रेस, गोरखपुर का उल्लेख करना आवश्यक है, जिसने बहुत पहले भारतीय मूल्यों की स्थापना करने के लिए भारतीय ग्रंथों का प्रकाशन किया एवं देश और विदेश में हिन्दी के समाजशास्त्र को प्रचारित किया।

“अनुवादित हिन्दी में भी हिन्दी का समाजशास्त्र व्याख्यायित हुआ है। गुजराती से गांधी का अनुवाद, बंगला से शरतचंद्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का अनुवाद, अंग्रेजी से पंडित नेहरू का अनुवाद, मराठी से तिलक और विनोबा का अनुवाद एवं उसी प्रकार की अन्य भाषाओं से हिन्दी में भारतीय समाज का निरूपण हुआ है, वह हिन्दी का समाजशास्त्र है।

“सारांशवत हिन्दी के समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत विनम्रता पूर्वक अपनी प्रारंभ की बात पुनः दोहराना चाहता हूं कि हिन्दी का समाजशास्त्र भारतीयता का समाजशास्त्र है, जो लेखन अथवा साहित्य चाहे वह मौलिक हो अथवा अनूदित, भारतीय मूल की जिस भाषा में लिखा हो, उसे हिन्दी के समाजशास्त्र में सम्मिलित किया जाना चाहिए। मैंने अपने व्याख्यान में कुछ साहित्यकारों तथा कुछ कृतियों का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त भी बहुत से साहित्यकार हिन्दी की सेवा में अविरल संलग्न हैं, उनके बारे में ज्ञान न होना मेरी अज्ञानता है। उनसे क्षमा-याचना तथा प्रणाम करते हुए मैं चाहूंगा कि हिन्दी के उपासकों का एक ऐसा समूह तैयार हो जो भारतीयता की शर्त को केन्द्र में रखकर जितना भी हिन्दी तथा भारतीय मूल की भाषाओं में सृजन हुआ हो, उसे संकलित, अनुशीलित तथा अन्वेषित कर प्रस्तुत करे। साथ ही मेरा अनुरोध यह भी है हिन्दी के साधकों से कि अपने अंदर तपश्चर्या के माध्यम से इतनी क्षमता उत्पन्न करें कि परिस्थितियों से बिना समझौता किए वे भारतीयता के स्वर को निरंतर भास्वर बनाए रखें। हिन्दी वास्तव में पूरे भारत की भाषा तथा नागरिकता और संस्कृति की पर्याय बन जाए, यही मेरी अभिलाषा है। आपने मुझे धैर्यपूर्वक सुना, इसके लिए धन्यवाद। यदि मेरे व्याख्यान में कोई त्रुटि रह गई हो अथवा किसी को कष्ट हुआ हो उसके लिए क्षमायाचना।

वंदे मातरम् !”

समारोह के प्रारंभ में प्रख्यात आलोचक एवं हिन्दीसेवी स्व. डॉ. विजयेन्द्र स्नातक के तैलचित्र का अनावरण किया गया। हिन्दी भवन के मंत्री, डॉ. गोविन्द व्यास ने धर्मवीर स्मृति हिन्दी महिमा व्याख्यानमाला की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला और अतिथियों एवं आगन्तुकों का स्वागत किया। प्रो. वाजपेयी का व्याख्यान सुनने के लिए राजधानी के कवि, लेखक, पत्रकार और राज-समाजसेवी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।