हिन्दी चले तो चले कैसे ? हमारे पूर्व महामहिम राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जब जीवन-पर्यंत हिन्दी नहीं सीख पाए तो अन्य लोगों से कैसे कहा जाए ? कहा भी जाए तो वे क्यों सीखने लगे ? सरकार के मुखिया को तो पहले हिन्दी सिखाओ ! उस मुखिया को जिसकी सरकार ने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया है और जिसका गृह-मंत्रालय अपनी हिन्दी-प्रशिक्षण योजना के अंतर्गत वर्षों से सरकारी कर्मचारियों को हिन्दी पढ़ा रहा है।
हिन्दी चले तो चले कैसे ? जब हमारे मंत्रियों-प्रधानमंत्रियों के पास हिन्दी को प्रोत्साहन देने के लिए चार शब्द भी नहीं हैं। उनकी समर्थ सरकार के पास हर क्षेत्र के लिए योजना है, दिशा-निर्देश भी हैं, लेकिन न हिन्दी के लिए कोई सार्थक योजना है और न संकल्प। उल्टे उनके संवाददाता-सम्मेलन में जब कोई हिन्दी में प्रश्न पूछता है तो उसे निरुत्साहित करने में वह सदैव अग्रणी रहती है।
हिन्दी चले तो चले कैसे ? जब कोई उत्साही सरकारी कर्मचारी हिन्दी में काम कर उठता है तो अपने अफसरों का प्रीतिभाजन नहीं रहता। यदि कोई भूला-भटका अफसर हिन्दी के प्रति आकृष्ट होता है तो उसके सचिव उससे कहते हैं कि उन्हें काम चाहिए, हिन्दी नहीं। सचिवगण प्रायः हिन्दी में बोलने और लिखने की गलती नहीं किया करते। अगर कभी यह अपराध बन पड़ता है तो मंत्रीजी उन्हें यही उपदेश देते नज़र आते हैं कि सेवाओं की सुरक्षा, दक्षता और उपयोगिता के लिए देश में अंग्रेजी का बना रहना बहुत आवश्यक है।
हिन्दी चले तो चले कैसे ? हमारे व्यापारी बंधु जब यह सोचते हैं कि उनका व्यापार, उनके माल की उत्तमता और संस्था की साख के कारण नहीं चल रहा है, इसका असली कारण तो अंग्रेजी का साइनबोर्ड, अंग्रेजी पत्र-व्यवहार, अंग्रेजी में दिया हुआ विज्ञापन, अंग्रेजी में छपे हुए लेबिल और अंग्रेजी ढंग का पैकिंग ही है।
”व्यापारे वसते लक्ष्मी” नहीं, आज तो ”व्यापारे वसते अंग्रेजी” ही उनका मूल मंत्र है।
हिन्दी चले तो चले कैसे ? जब सर्वोच्च न्यायालय का सारा काम अंग्रेजी में चलता है तो उच्च न्यायालय के निर्णय हिन्दी या देशी भाषाओं में कैसे लिखे जाएं ? जब उच्च न्यायालयों के फैसले अंग्रेजी में लिखे जाते हैं, तब वकील हिन्दी में बहस कैसे करें ? जब मामलों को उच्च और उच्चतम न्यायालयों तक पहुंचाना ही है, तब निचली अदालतों से अंग्रेजी कैसे हटे ? कानून अंग्रेजी में, जिरह अंग्रेजी में, फैसले अंग्रेजी में। हिन्दी या देशी भाषाओं में तो सिर्फ झूठी या सच्ची गवाही ही दी जा सकती है, जिसे अनुवाद करके कुछ का कुछ समझाया जा सकता है।
हिन्दी चले तो चले कैसे ? जब सरकार अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं को ही महत्व देती है और उन्हीं की कतरनों पर गौर करती है, जब बुद्धिवादी अपने को अंग्रेजी में अभिव्यक्त करके ही गौरव को प्राप्त होते हैं, जब विद्यार्थी हिन्दी पढ़कर धक्के खाते हैं, जब देश में हिन्दी संस्थाओं की वक़त नहीं है, जब हिन्दी के कार्यकर्ता या तो लोहियावादी माने जाते हैं अथवा फिर संघी या भूतपूर्व जनसंघी, तब हिन्दी की गाड़ी आगे कैसे चले ?
हिन्दी चले तो चले कैसे ? जब हिन्दी के साहित्यकार मौलिक कृतिकार न रहकर उच्छिष्ट-भोगी या अपने स्वार्थों के लिए दीन-हीन भिखारी बन गए हैं- कहीं कोई पद मिले या छोटा-बड़ा पुरस्कार मिले अथवा मुफ्त की ही पेंशन मिल जाए, साहित्य का भंडार न भरकर उनका पेट भरते रहना चाहिए।
हिन्दी चले तो चले कैसे ? उसका शोर तो है, लेकिन मांग नहीं। सरकारी कर्मचारी तरक्की पाने के लिए उसे पढ़ना चाहते हैं। नेता और मंत्री चुनावों में वोट पाने के लिए उसका अभ्यास बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन सरकारी कर्मचारी हिन्दी सीखकर उसमें काम नहीं करते। नेता हिन्दी में वोट मांगकर चुने जाते हैं, लेकिन चुने जाने के बाद हिन्दी को भूलना ही श्रेयस्कर समझते हैं। सरकार, अपनी सुविधा के लिए संविधान में अभी तक हिन्दी को बनाए हुए है- यही क्या कम है ?
लेकिन याद रखिए, हिन्दी नहीं चलेगी तो इस देश में लोकतंत्र भी नहीं चलेगा। लोकतंत्र अधिक दिन तक परलोक की भाषा में नहीं चल सकता।
लोकभाषाओं का निरादर करके हम अपने को लोकतंत्रीय कहें- इससे बड़ा कोई दूसरा धोखा नहीं। लोकभाषाओं के चलने के मार्ग में आज अंग्रेजी ही सबसे बड़ी बाधा है। अंग्रेजी गई तो लोकभाषाएं आई। लोकभाषाएं आईं तो हिन्दी आईं।
याद रखिए, हिन्दी नहीं चलेगी तो इस देश में समाजवाद भी नहीं चलेगा। समाजवाद कभी परदेश की भाषा में नहीं चला करता। वह जीवन से ही विषमताओं का अंत नहीं करता, भाषागत ऊंच-नीच और असमानता भी उसे सह्य नहीं। स्वभाषा समाजवाद की पहली शर्त है।
याद रखिए, हिन्दी नहीं चलेगी तो सच्ची धर्मनिरपेक्षता भी नहीं चलेगी। यह हिन्दी ही है जो अमीर खुसरो, जायसी, रहीम, रसखान और इंशाअल्ला खां एक ओर, तो दूसरी ओर जार्ज ग्रियर्सन से लेकर फादर कामिल बुल्के को साथ लेकर चली है। अपने-अपने धर्मों पर अडिग रहकर सभी जातियों और भाषाओं के लोगों ने धर्मनिरपेक्ष भाव से हिन्दी की सेवा की है। उसका यह विशेष गुण घटा नहीं, बढ़ा ही है।
याद रखिए, हिन्दी हिन्द का पर्याय है। जब-जब हिन्द आगे बढ़ा है तो हिन्दी आगे बढ़ी है। अगर हिन्द नीचे जाएगा तो हिन्दी भी तरक्की नहीं कर सकती। इसलिए हिन्दी-सेवियों और हिन्दी-प्रेमियों का यह प्रथम कर्त्तव्य है कि वे देश को ऊंचा उठाएं। देशवासियों में स्वदेशानुराग और स्वाभिमान को बढ़ाएं। हिन्दी अपने-आप आगे बढ़ जाएगी, क्योंकि हिन्दी देश की धड़कन है, उसके दिल की आवाज़ है। हिन्दी ही हिन्द है और हिन्द ही हिन्दी है। जब भारतीयों में यह भावना घर कर जाएगी तो जहां-तहां से आने वाले विरोध के स्वर स्वतः ही समाप्त हो जाएंगे। जब यह भावना हिन्दीजनों में भर जाएगी तो देवनागरी अपने-आप चमक उठेगी। उसका साहित्य ऊंचाइयों को छूने लगेगा। ज्ञान-विज्ञान हस्ता मलक हो जाएंगे। तकनीक चरणों की चेरी बन जाएगी। हिन्दी का ही नहीं, भारत का भी मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाएगा। सम्पूर्ण विश्व एक अनोखी ललक के साथ हिन्दी की ओर देखने लगेगा, क्योंकि हिन्दी युद्ध की नहीं, शांति की भाषा है; वैमनस्य का नहीं, प्रेम का संदेशा है; भौतिकता का नहीं, आध्यात्मिकता का पदार्थ-पाठ है, इसी के लिए विश्व आज भटक रहा है।
(‘बिन हिन्दी सब सून’ से, सन् 2002)