(विष्णु प्रभाकर)
हिन्दी व्यंग्य-विनोद के मूर्धन्य लेखक, हास्य-रसावतार एवं वरिष्ठ हिन्दीसेवी पं. गोपालप्रसाद व्यास किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। साठ साल से भी अधिक हो गए हैं, उन्हें लिखते-छपते। उनकी पचास से अधिक महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। व्यासजी हिन्दी के अत्यंत लोकप्रिय साहित्यकारों में हैं और आज भी लाखों की संख्या में उनके पाठक और श्रोता मौजूद हैं। व्यासजी ने साहित्य के क्षेत्र में एक लंबी पारी खेली है। खूब चौके-छक्के लगाए हैं और आज चौरासी-पचासी वर्ष की अवस्था में भी लगातार रन बना रहे हैं।
व्यासजी से मेरा परिचय बहुत पुराना है। सन् 1943-44 के आसपास जब हम लोग दिल्ली आए तो देश की राजधानी कहलाने वाली दिल्ली में हिन्दी भाषा और साहित्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। यदाकदा धार्मिक अवसरों पर कवि-गोष्ठियां हो जाया करती थीं। एकाध बार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ था। लेकिन उस समय आचार्य चतुरसेन शास्त्री और जैनेन्द्रकुमार के अतिरिक्त कोई बड़ा साहित्यकार दिल्ली में नहीं था। बाद में सर्वश्री गोपालप्रसाद व्यास, नगेन्द्र, विजयेन्द्र स्नातक आदि यहां आए। कुछ पुराने हिन्दी-सेवक उस समय दिल्ली में पहले से थे, जिनमें मुख्य रूप से सर्वश्री रामचंद्र महारथी, दीनानाथ भार्गव ‘दिनेश ‘, अवनीन्द्रकुमार विद्यालंकार, पुत्तूलाल वर्मा ‘करुणेश ‘ हिन्दी भाषा तथा साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय थे। इनमें एक चिरंजीत भी थे। इन सभी महानुभावों को साथ लेकर व्यासजी और मैंने बहुत से साहित्यिक कार्य किए।
सन् 1945 में व्यासजी के सुझाव पर दिल्ली में अखिल भारतीय ब्रज साहित्य मंडल का वार्षिक अधिवेश न बड़े भव्य रूप में आयोजित किया गया। इस अधिवेशन में विशेष रूप से मिश्रबंधुओं में छोटे भाई तथा महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला उपस्थित हुए थे। इस अवसर पर लगातार दो दिन कवि-सम्मेलन हुए। दिल्ली में यह हिन्दी का पहला भव्य समारोह था। इस सफल अधिवेशन के पीछे व्यासजी की प्रेरणा और सूझबूझ थी तथा इससे दिल्ली में हिन्दी का वातावरण निर्मित हुआ। हिन्दीप्रेमियों में उत्साह एवं नवीन चेतना का संचार हुआ।
तत्पश्चात हम लोगों ने मिलकर ‘श निवार समाज’ नाम से एक साहित्यिक संस्था की स्थापना की। ‘शनिवार समाज’ के तत्वावधान में नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियां होने लगीं। देश -विदेश के अनेक साहित्यकारों ने उसमें भाग लिया। तब हम लोगों का एक ऐसा दल बन गया जिसने दिल्ली में हिन्दी साहित्य और उसकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए। व्यासजी की भूमिका ‘शनिवार समाज’ के सभी कार्यों में उल्लेखनीय थी।
मेरे और व्यासजी के संबंधों की एक लंबी कहानी है। व्यासजी ने दिल्ली के हिन्दी साहित्य सम्मेलन में नए प्राण फूंके और सम्मेलन के माध्यम से दिल्ली में हिन्दी का बिगुल बजा दिया। व्यासजी की कर्मठता, परिश्रम-क्षमता से ही आज दिल्लीवालों को ‘हिन्दी भवन’ प्राप्त हुआ है।
हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में व्यासजी ने नए कीर्तिमान स्थापित किए। हास्य-व्यंग्य में जो फूहड़पन चला आ रहा था, उसे व्यासजी ने शिष्टता, शालीनता एवं साहित्यिक महत्व प्रदान किया। उनके द्वारा ही हिन्दी में व्यंग्य-साहित्य की प्रतिष्ठा हुई।
बहुत कुछ है व्यासजी के बारे में कहने के लिए मेरे पास। मेरे उनके साथ पारिवारिक संबंध हैं, पर उनकी याद को हृदय में संजोए हुए हम लोग अपनी-अपनी डगर पर चल रहे हैं। चौरासी-पचासी वर्ष की अवस्था और शारीरिक बाधाओं के बावजूद व्यासजी में आज भी युवकों जैसा उत्साह और कर्मठता विद्यमान है। वह आज भी निरंतर लेखन में और हिन्दी भवन के कार्यों में सक्रिय हैं। व्यासजी ने हिन्दी के लिए कितना काम किया है, इसका लेखा-जोखा देने के लिए एक ग्रंथ की आवश्यकता होगी। मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि उन्होंने हिन्दी को उसका अधिकार दिलाने के लिए सफल प्रयास किया है। उनके द्वारा हिन्दी के लिए किए गए संघर्षों का मैं साक्षी रहा हूं। व्यासजी ने अपनी अदम्य इच्छा-शक्ति से वह काम कर दिखाए जो बड़े-बड़े नहीं कर सके। युग तो हमेशा आगे बढ़ता है, पर वह अपने पीछे आने वालों के कंधों पर चढ़कर ही बढ़ता है।
व्यासजी आयु की दृष्टि से मेरे छोटे भाई हैं, लेकिन कर्मठता की दृष्टि से वह मुझसे बड़े व बहुत आगे हैं। न जाने कितनी यादें मेरे मन में उमड़ती आ रही हैं पुराने समय की। पूरा एक युग बीत गया। न जाने कहां गए वे लोग और वह समय ? अब तो स्मृति ही हमारी शक्ति है। व्यासजी उस स्मृति को सजाने-संवारने का काम कर रहे हैं। हिन्दी के इस पुरोधा को ईश्वर शतायु करें-यही मेरी कामना है।
(‘शलाका पुरुष पं. गोपालप्रसाद व्यास’ से, सन् 2001)