श्री साइजी माकिनो

राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की 125वीं जयंती के अवसर पर नौवां पं. भीमसेन विद्यालंकार स्मृति ‘हिन्दीरत्न सम्मान’ राष्ट्रभाषा हिन्दी के गौरव, समर्पित हिन्दीसेवी, जापानी आत्मा के खोजी, गांधीवादी मूल्यों के संवाहक एवं सृजनशील हिन्दी-यात्री श्री साइजी माकिनो को दिल्ली के उपराज्यपाल महामहिम श्री बनवारीलाल जोशी ने प्रशस्ति-पत्र एवं शाल तथा कर्नाटक के राज्यपाल एवं हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने प्रतीक चिह्‌न एवं माल्यार्पण कर प्रदान किया।

यह सम्मान भारतीय अहिन्दीभाषी सेवकों को दिया जाता है, लेकिन यह पहला अवसर था जब यह सम्मान किसी विदेशी हिन्दीसेवी को दिया गया। समारोह की अध्यक्षता कर्नाटक के राज्यपाल एवं हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने की। इस अवसर पर दिल्ली के उपराज्यपाल श्री बनवारीलाल जोशी, जापानी राजदूत श्री यासुकोनी इनोकि, चिंतक एवं विधिवेत्ता श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी एवं वयोवृद्ध साहित्यकार पद्मविभूषण श्री विष्णु प्रभाकर उपस्थित थे।

समारोह के आरंभ में जापानी राजदूत श्री यासुकोनी इनोकि ने हिन्दी के प्रथम सेनापति महर्षि दयानंद के तैल-चित्र का अनावरण किया। सम्मान ग्रहण करने के बाद श्री साइजी माकिनो ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा- “इतना बड़ा सम्मान मेरे लिए एक बोझ है। आज हिन्दी की वज़ह से ही मैं यहां हूं। मुझे पहले भारत और हिन्दी के बारे में कुछ नहीं मालूम था, लेकिन भारत में गांधीजी और विनोबाजी के संपर्क में आकर मुझे हिन्दी सीखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हिन्दी विश्वशांति की भाषा है और जब तक मैं जिऊंगा हिन्दी के साथ रहूंगा।”

हिन्दी में बोलने का अभ्यास न होने के कारण उन्होंने सभी से अपने ग्रंथ ‘भारत में 45 साल : मेरी हिन्दीयात्रा’ पढ़ने का अनुरोध किया। भारत में जापान के राजदूत श्री यासुकोनी इनोकि ने साइजी माकिनो को ‘हिन्दीरत्न सम्मान’ दिए जाने पर प्रसन्नता व्यक्त की और भारत-जापान के सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ बनाने में योगदान देने के लिए साइजी की प्रशंसा की।

उन्होंने हिन्दी से जापान के जुड़ाव के बारे में बताते हुए कहा – “संस्कृत जापानियों के लिए पवित्र भाषा है, क्योंकि बौद्धधर्म के ग्रंथ इसी भाषा में लिपिबद्ध हैं और संस्कृत हिन्दी भाषा की जननी है। अतः हमारे लिए हिन्दी भी एक पवित्र भाषा है।” हिन्दी और जापानी भाषा की समानताओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा – “मैंने 60 घंटे में हिन्दी सीखने का प्रयास किया और इस दौरान मैंने पाया कि संस्कृत और हिन्दी वर्णमाला का जापानी भाषा पर गहरा प्रभाव है। हालांकि हिन्दी और जापानी अलग-अलग भाषा समूहों की भाषाएं हैं, लेकिन इन दोनों में काफी समानताएं हैं।” उन्होंने हिन्दी भवन द्वारा हिन्दी के प्रचार-कार्यों के लिए श्रद्धा प्रकट की और सम्मान समारोह में आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद दिया।

वयोवृद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने आशीर्वचन देते हुए कहा – “मेरे आग्रह पर ही साइजी माकिनो को यह सम्मान दिया गया है। इसके लिए मैं हिन्दी भवन को धन्यवाद और साइजी को बधाई देता हूं।” उन्होंने संक्षेप में बताया कि किस प्रकार श्री साइजी भारत आए और गांधीजी तथा विनोबाजी के संपर्क में आकर उन्होंने हिन्दी सीखी और यहीं के होकर रह गए। साइजी बहुत सरल और विनम्र हिन्दीसेवी हैं। वह गांधीमय, खादीमय और हिन्दीमय हैं। भारत में उनकी जीवनयात्रा ही हिन्दीयात्रा है। दिल्ली के उपराज्यपाल श्री बनवारीलाल जोशी ने इस बात के लिए श्री माकिनोजी की प्रशंसा की कि उन्होंने अहिन्दीभाषी व्यक्तित्व को हिन्दी में समाहित किया और भारत में 45 वर्षों की अपनी जीवनयात्रा को हिन्दीयात्रा का नाम दिया।

उन्होंने टंडनजी को याद करते हुए कहा कि वे राजनीति के कीचड़ में कमल के समान थे और वाकई पुरुषोत्तम थे, क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों के शासनकाल में ही आजीवन हिन्दी बोलने का प्रण लिया। उन्होंने टंडनजी के साथ-साथ पं. भीमसेन विद्यालंकार के प्रति भी श्रद्धा प्रकट की। चिंतक एवं विधिवेत्ता श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने इस बात पर गर्व प्रकट किया कि हिन्दी जिनकी मातृभाषा नहीं थी, उन्हीं ऋषि दयानंद ने हिन्दी का शंखनाद किया, जिनके चित्र का अनावरण आज हिन्दी भवन में कराया गया है। उन्होंने हिन्दी प्रचार के अभियानों से जुड़ी संस्थाओं में हिन्दी भवन को महत्वपूर्ण बताया। साथ ही भारत और जापान के संबंधों को दृढ़ता और गहराई देने के लिए जापानी राजदूतों की प्रशंसा की और फुजिई गुरुजी की स्मृति में बनवाए गए भव्य स्मारक की चर्चा की।

कर्नाटक के राज्यपाल एवं हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री विष्णु प्रभाकर को साइजी माकिनो के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराने के लिए साधुवाद दिया। उन्होंने कहा, “हालांकि श्री साइजी माकिनो ने अपने छोटे से वक्तव्य में गागर में सागर भर दिया है, लेकिन उनके ग्रंथ को पढ़कर हम उनके विचारों को और अच्छी तरह जान सकेंगे।” उन्होंने टंडनजी, भीमसेन विद्यालंकार और महर्षि दयानंद के हिन्दी के प्रचार-प्रसार में योगदान की चर्चा करते हुए उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की।

अंत में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने सभी आगंतुकों को धन्यवाद दिया। समारोह का संचालन श्रीमती इंदु जैन ने किया।

हिन्दीरत्न श्री साइजी माकिनो का संक्षिप्त परिचय

श्री साइजी माकिनो का जन्म 11 फरवरी, 1924 को जापान के क्येटो, फुकुचियामा के एक गांव में हुआ। ‘तोत्तोरि विश्वविद्यालय’ से पशुपालन की डिग्री हासिल करने के पश्चात उन्होंने बौद्धधर्म के जापानी तेंदाई दर्शनशास्त्र का दो वर्ष तक अध्ययन किया। बीस वर्ष की आयु में श्री माकिनो द्वितीय महायुद्ध के समय फौज में भर्ती हुए। महायुद्ध की समाप्ति के बाद वे यायावर के रूप में धार्मिक अनुसंधान के लिए देश-विदेश की यात्राएं करने लगे। सन्‌ 1958 में फुजिई गुरुजी की संस्तुति पर भारत आए और वर्धा स्थित सेवाग्राम के ‘हिन्दुस्तान तालीमी संघ’ के स्थाई कार्यकर्त्ता बन गए। उन्होंने सीमावर्ती राजस्थान में विनोबाजी के साथ तीन महीने तक पदयात्रा की।

सन्‌ 1960 में श्री माकिनो सेवाग्राम छोड़कर हिन्दी-अभ्यास के लिए शांति निकेतन आ गए। 1962 से लेकर 1970 तक वे भारत स्थित कई संस्थानों में विभिन्न पदों पर रहे और 1974 में ‘शांतिनिकेतन विश्व भारती’ में जापानी भाषा के प्राध्यापक नियुक्त हुए।

श्री साइजी माकिनो ने ‘जापानी आत्मा की खोज’, ‘जापान की कहानियां’, ‘मणिपुर की लोककथाएं’, ‘टैगोर और गांधी : एक तुलनात्मक अध्ययन’ (दो खंडों में)’, और ‘भारत में चालीस सालः पुनर्विचार और सिंहावलोकन’ आदि रचनाओं का सृजन किया। उन्होंने भगवतीचरण वर्मा के चर्चित उपन्यास ‘चित्रलेखा’ का जापानी भाषा में अनुवाद किया। श्री माकिनो की नवीनतम कृति ‘भारतवर्ष में 45 सालः मेरी हिन्दीयात्रा’ भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा प्रकाशनाधीन है।