रहिबे कूं घर को मकान होई अट्टादार
हाथ सिलबट्टा पै उछट्टा दै हिलत जायँ।
द्वार बंधी गय्या होइ, घर में लुगय्या होइ,
बंक में रुपय्या होइ, हौंसला खिलत जायँ।
‘व्यास’ कवि कहैं-चार भय्यन में मान होइ।
देह हू में जान होइ, दंड हू पिलत जायँ।
रोजनामचा में रोज-रोज ओज आतौ रहै,
ऐसी करौ योजना कि भोजना मिलत जायँ।
भोजन में भात होइ, घी सौं मुलाकात होइ,
दही-बूरौ साथ होइ, दार अरहर की।
हरौ कछू साग होइ, चटनी की लाग होइ,
फूले-फूले फुलका परोसैं जाय घर की।
‘व्यास’ कवि कहैं रबड़ी जो मिल जाय कहूं ,
फेरि हमें चाहना न बिधि-हरि-हर की।
योजना बनाऔ तो बनाऔ जामैं खीर घुटै,
पूरी कौन खाय ? बात मालपुआ तर की।
भोजन में भात होइ, घी सौं मुलाकात होइ,
दही-बूरौ साथ होइ, दार अरहर की।
हरौ कछू साग होइ, चटनी की लाग होइ,
फूले-फूले फुलका परोसैं जाय घर की।
‘व्यास’ कवि कहैं रबड़ी जो मिल जाय कहूं ,
फेरि हमें चाहना न बिधि-हरि-हर की।
योजना बनाऔ तो बनाऔ जामैं खीर घुटै,
पूरी कौन खाय ? बात मालपुआ तर की।
(‘हास्य सागर’ से, सन् 1996)