हिन्दी भवन के धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में तीसरा ‘धर्मवीर स्मृति हिन्दी महिमा व्याख्यान’ 24 सितम्बर, 2004 को पूर्व विदेश राज्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में प्रखर चिंतक एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी ने दिया।
श्री जोशी के व्याख्यान का विषय था- ‘बोली की हिन्दी’। कार्यक्रम का संचालन श्री महेशचंद्र शर्मा ने किया।
श्री प्रभाष जोशी ने प्रस्तावित विषय पर जो व्याख्यान दिया उसका एक अंश आपके लिए प्रस्तुत है- “सबसे पहले भारत के अन्यतम प्रशासक और अपने यहां बहुत कम ऐसे प्रशासक हुए हैं, जिन्होंने इतने तरह की जिम्मेदारियां खासकर भारत के स्वतंत्र होने के बाद, इतनी जगहों पर संभाली हों, उन धर्मवीरजी की स्मृति को मैं प्रणाम करता हूं। मेरा सौभाग्य है कि आज शाम आप लोगों के सम्मुख हिन्दी के बारे में कुछ बात करने का अवसर मुझे मिला। मैं उम्मीद करता हूं कि सिर्फ धर्मवीरजी ही नहीं, उनकी तरह के और लोग भी, जिन्होंने प्रशासन में, राजनीति में, हिन्दी के स्वीकार किए जाने के बारे में बुनियादी काम किया, उनकी स्मृति में कुछ कार्यक्रम चलते रहने चाहिए। क्योंकि ऐसी विभूतियों के पराक्रम के कारण ही हम लोगों को अवसर मिलता है कि हम अपनी बात को उनकी बात में मिलाकर, आगे बढ़ाकर कह सकें। व्यासजी ने जब कहा कि मुझसे वे चाहते हैं कि मैं हिन्दी भवन में बोलूं और हिन्दी के बारे में कुछ बोलूं तो मैंने कहा कि मैं ‘बोली की हिन्दी’ विषय पर बोलूंगा तो वह थोड़ा अचकचाहट महसूस करने लगे। हमारे महेशचंद्र शर्माजी को भी इस बात से अटपटा लगा कि ‘बोली की हिन्दी’ पर क्या बोला जाएगा ? मित्रों, मैंने जानबूझकर और सोच-समझकर ‘हिन्दी की बोली’ पर बोलने का निर्णय लिया। क्योंकि अकसर 14 सितंबर को और 14 सितंबर के बाद पखवाड़े तक हमारे देश में राष्ट्रभाषा हिन्दी को लेकर काफी कार्यक्रम होते हैं और मैं सोचता हूं कि काफी अरण्यरोदन भी होता है। इस बात को लेकर कि हिन्दी का जो होना चाहिए था, वह हो नहीं सका। ‘अरण्यरोदन’, मैंने संस्कृत का इस्तेमाल किया, हमारी बोली में उसे ‘रान-रोना’ बोलते हैं। क्योंकि वह लगभग उसी असहायता के साथ किया जाता है। मुझे वह कई बार बहुत दयनीय लगता है। मुझे लगता है कि हिन्दी की स्थिति कतई ऐसी नहीं है कि हम अपने अखबारों में लगातार लिखकर इस बात का रोना रोएं कि हिन्दी की स्थिति खराब हो रही है। सरकार पर आरोप लगाएं कि वह कुछ कर नहीं रही है। प्रशासन को बार-बार कोसें कि उससे कुछ बन नहीं रहा है। क्योंकि जो कुछ हो रहा है, वह मात्र 14 सितंबर ‘हिन्दी दिवस’ पर एक सनसनाता हुआ भाषण देने से काम चलेगा नहीं। अक्सर, और ये सिर्फ हिन्दी के बारे में ही नहीं है, भारत में ही नहीं है, दुनिया में सारे सांस्कृतिक आंदोलन या क्रांतियां अंततः किसी बहुत बड़ी आंदोलनकारी शक्ति के कारण होते हैं। वह शक्तियां ही भाषाओं को, सांस्कृतिक उद्भवों को जन्म देती हैं। जिस परिस्थिति में राष्ट्रभाषा हिन्दी का आंदोलन इस देश में बरसों तक चलाया गया, वह अन्ततः हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन नहीं था। वह भारत को राष्ट्र बनाए जाने वाले आंदोलन का हिस्सा था। जिस तरह पत्रकारिता राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का एक हथियार थी, उसी तरह से हिन्दी भाषा भी भारत को राष्ट्र बनाने का जो संकल्प हम लोगों ने किया था, उसको प्राप्त करने का एक तरीका था। यह मत मानिए कि राष्ट्रवाद का आंदोलन मात्र भारत में चल रहा था। आप देखेंगे कि 20वीं शताब्दी की शुरूआत में सारी दुनिया में राष्ट्रवाद का एक नए किस्म का आंदोलन चल रहा था। यूरोप में भी, अमरीका में भी, जो देश मजबूत राष्ट्र हो चुके थे, वे दूसरे देशों पर अपना साम्राज्य कायम करके और साम्राज्यवाद के जरिये अपनी ताकत बढ़ाना चाहते थे। दरअसल वह उनके राष्ट्रवाद का विस्तार था। उन देशों से, उन साम्राज्यवादी शक्तियों से लड़कर अपने को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का आंदोलन एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका, तीनों जगह बहुत ज़ोर से चल रहा था। राष्ट्रवाद का आंदोलन आप पाएंगे कि 20वीं शताब्दी की शुरूआत में सारी दुनिया में चल रहा था। उसी राष्ट्रवाद का एक दुष्परिणाम हमने प्रथम महायुद्ध में देखा। क्योंकि वह अगर राष्ट्रवाद की इतनी बड़ी शक्ति का उदाहरण नहीं होता तो इतना बड़ा महायुद्ध नहीं हो सकता था। उसके बाद दूसरा महायुद्ध भी हमने सन् 1939 से लेकर सन् 1944 तक देखा। वह भी अन्ततः राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद से लड़कर अपने को नए राष्ट्रवाद में ढालने की सारे संसार की इच्छा का परिणाम था। उस दौरान भारत को राष्ट्र बनाने के लिए जो लोग सोच रहे थे और आंदोलन कर रहे थे, उन सबको लगता था कि जब तक भारत की कोई भाषा नहीं होगी, तब तक भारत को राष्ट्र बनाना मुश्किल होगा। मैं यह मानता हूं कि भारत की जो राष्ट्र होने की इच्छा है यूरोप के राष्ट्रवाद से हमारे यहां आई है। यूरोप में यह माना जाता था कि अगर किसी देश की एक भाषा है तो वह एक राष्ट्र बना सकती है और जो राष्ट्र बने हैं, वे अपने देश में एक भाषा को कायम करेंगे। इसलिए छोटे-छोटे यूरोपीय देशों ने भाषा को पकड़कर रखा। उसको अपने राष्ट्रवाद का एक प्रकार से विचार माना। भारत में अब बहुभाषावाद का ज़माना आ गया है। कई भाषाओं का ज़माना आ गया है। मैं सोचता हूं कि ऐसा कोई समय भारत में नहीं था जब यहां कई भाषाएं एक साथ नहीं चलती थीं और वे भाषाएं कहीं भी ये दावा नहीं कर रही थीं कि सिर्फ हम ही इस देश की भाषा हैं। कालिदास के नाटक आप पढ़ें तो वे संस्कृत और बड़ी परिष्कृत संस्कृत में लिखे गए नाटक हैं। लेकिन उनमें दासियां बोलती हैं तो वे प्राकृत में बोलती हैं और जो उनसे बोल रहा है वह प्राकृत में बोल रहा है। तो जब कालिदास की परिनिष्ठित संस्कृत लिखी जा रही थी या विद्वानों की भाषा संस्कृत थी, उस वक्त भी लोग प्राकृत भाषा बोलते थे। जो लोग समझते हैं कि इन आदिवासियों की भाषा में क्या दम रखा है ? बोलियों की भाषा क्या है ? उनको यह जानकर ज़रा सुखद आश्चर्य होना चाहिए कि ऋग्वेद जो पहला लिखा हुआ ग्रंथ माना जाता है, इस देश का भी और शायद दुनिया का भी, उसमें अपने मुंडा आदिवासियों की मुंडारी भाषा के चौंसठ शब्द हैं। यानि, जो ऋषि ऋग्वेद लिख रहे थे, वे आस-पास उन लोगों के साथ रह रहे थे जिनकी भाषा आज मुंडारी है। इस प्रकार से भारत में एक प्रकार का मल्टीलिंग्वलिज्म बहुत पुराने ज़माने से चला आ रहा है। इस बात से अपने को इन्कार नहीं करना चाहिए और आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हमारे यहां कई भाषाएं क्यों हैं ?
अभी हमारे दिग्विजय सिंहजी आए तो मैंने इनसे पूछा कि आपकी मातृभाषा अवधी है या भोजपुरी ? उन्होंने कहा कि ‘अंगीका’ है। मेरी मातृभाषा जिसे सचमुच मातृभाषा कहेंगे तो वह ‘मालवी’ है। व्यासजी की मातृभाषा ब्रज है और अगर महेशचंद शर्मा हरियाणे के न हों, तो…. खड़ीबोली हिन्दी इनकी भाषा होनी चाहिए। हम लोग दो-तीन भाषाओं में एक साथ लगातार रहने वाले हैं। अभी जिस मल्टीलिंग्वलिज्म की बात कर रहे हैं यहां, वह हमारे यहां बहुत पुराने ज़माने से चला आ रहा है। लेकिन यूरोप के राष्ट्र बनाने वालों की प्रक्रिया ने हमें समझाया कि जब तक आपकी कोई एक भाषा नहीं होगी, सारे देश के लोगों की, तब तक राष्ट्र नहीं बन सकता। इसलिए जो लोग भी भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन चला रहे थे, उन्होंने माना कि भारत में एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए, जो हिन्दी ही हो सकती है। गुजराती महात्मा गांधी, तमिल राजगोपालाचारी, पंजाबी लाला लाजपतराय और बंगाली रवीन्द्रनाथ टैगोर, इन सब लोगों ने भी माना कि हिन्दी ही एकमात्र भाषा है जो राष्ट्रभाषा बन सकती है। अगर आप अपनी ज़मीन से अपने पांव नहीं उखाड़ सकते तो भूमंडलीकरण आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बोली के सवालों को हम राष्ट्रभाषा-राजभाषा में ढूंढ रहे हैं, लेकिन जब तक हिन्दी आपके और मेरे दिल में राज करेगी उसे कोई उखाड़ नहीं सकता। स्वंतत्रता आंदोलन चलाने वालों ने माना कि राष्ट्र-निर्माण में एक भाषा होनी चाहिए और वह हिन्दी हो सकती है। भाषा ही राष्ट्र बना सकती है, ऐसा मानने वालों में सावरकर भी थे। लेकिन वे भारत को राष्ट्र बनाने वाली भाषा संस्कृत को मानते थे। यह आंदोलन अपने देश में 70-80 साल तक चला। लेकिन जब हम अपनी राष्ट्रभाषा को तय करने की स्थिति में आए तो संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का जिक्र कहीं नहीं आया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हम यह नहीं कर पाए। आज सांस्कृतिक प्रश्न तो हमारी राजनीति में हैं ही नहीं। ये सवाल जातीय अस्मिता के छोटे सवालों में उलझ गए हैं। 21वीं सदी की शुरूआत में ये सब सवाल अप्रासंगिक होगए हैं। इसीलिए, कम से कम हमारे हिन्दी-इलाके में सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने वाली कोई स्थिति आप नहीं देखते। जिसे हम सांस्कृतिक पुनर्जागरण कहते हैं वह कहीं ऊपर से निकल गया है।
राष्ट्रवाद की जगह आज भूमंडलीकरण की हवा सबको हिला रही है। दुनिया के सभी नेताओं को लगता है कि बाहर का पूंजी निवेश बहुत ज़रूरी है। इस भूमंडलीकरण का वसुधा को कुटुंब बनाने के उद्देश्य से कोई लेना-देना नहीं है। यह पूंजी का भूमंडलीकरण है। इस पूंजी को किसी भी प्रकार के प्रतिबंध से बाहर निकालने की इच्छा लोगों के अंदर है। अंततः जिसके पास पूंजी है उसे ब्रह्म और जिसने मुनाफा कमा लिया उसे मोक्ष मिल गया, जैसी स्थिति होने वाली है।
भूमंडलीकरण का यह स्वरूप हमारे देश की भाषा को बहुत प्रभावित कर रहा है, पर इसके बारे में हम चिंता नहीं कर रहे। हमने तो उसके लिए इतने दरवाजे खोल दिए कि उसे अब रोक नहीं सकते। यदि रोक नहीं सकते तो उससे कैसे निपटें, आज हिन्दी की समस्या यही है।
अगर भूमंडलीकरण से निपटना है तो ‘बोली की हिन्दी’ से ही निपटा जा सकता है। और बोली को मज़बूत करना है तो सारी उपभाषाओं से वे शब्द लेने होंगे जो हमारी भाषा को ताकत देते हैं। हिन्दी का जब अंग्रेज कुछ नहीं कर पाए तो अब मार्केट उसका क्या बाल बांका कर देगा। जब तक भाषाएं ज़मीन पर हैं तब तक आकाश में होने वाला भूमंडलीकरण उन्हें समाप्त नहीं कर सकता।”
पूर्व विदेश राज्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा- “गांधीजी के बाद, बदकिस्मती से जो उनके उत्तराधिकारी बनकर आए, उन्होंने हिन्दी का इस्तेमाल नहीं होने दिया। इसीलिए उसे वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।” उन्होंने कहा कि “बाज़ार में जहां समाप्ति की ताकत है तो वहीं वह अवसर भी देता है। हिन्दी के लिए भूमंडलीकरण चुनौती है तो यह उसके लिए अवसर भी है। हम हिन्दी को अपनी गति से चलने की इज़ाजत देते रहें तो वह अपने आप चलती रहेगी।” अंत में धन्यवाद ज्ञापन हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने किया।