हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा के उन्नायक एवं हिन्दी भवन के संस्थापाक पंडित गोपालप्रसाद व्यास की छठी पुण्यतिथि पर शनिवार, 28 मई, 2011 को हिन्दी भवन के खचाखच भरे सभागार में आयोजित ‘काव्ययात्रा :कवि के मुख से’ कार्यक्रम के अंतर्गत ग़ज़ल, गीत और बेमिसाल दोहों के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय रचनाकार वसीम बरेलवी का एकल काव्यपाठ संपन्न हुआ।
समारोह के प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री एवं वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ. गोविन्द व्यास ने विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारे प्रो. सादिक का संक्षिप्त परिचय दिया तथा हिन्दी भवन के न्यासी रामनिवास लखोटिया, राजेन्द्र मोहन तथा समिति के कोषाध्यक्ष हरीशंकर बर्मन ने क्रमशः शाल, प्रतीक चिह्न, सम्मान राशि देकर वसीम बरेलवी एवं प्रो. सादिक का अभिनन्दन किया।
डॉ. व्यास ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि उर्दू ग़ज़लें अरसे तक चूड़ीदार पाजामा पहने रही, फिराक साहब ने ग़ज़लों को साड़ी पहनना सिखाया। वसीम बरेलवी ने उसमें सलीके से चुन्नटें डालकर और भी खूबसूरत बना दिया। जनाब बरेलवी साहब ने विभिन्न विधाओं में लिखा है। डॉ. व्यास के अनुसार कवि-सम्मेलनों की परंपरा मुशायरों की अपेक्षाकृत नई है। कवि और शायरों ने सदैव ही मंच पर एक दूसरे को सहयोग देकर एकरसता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है।
वसीम बरेलवी ने इस काव्य संध्या में अपने गीत, ग़ज़ल और दोहों से सभागार में उपस्थित हिन्दी-उर्दू के सभी काव्यपे्रमी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया तथा अपने हर शेर पर श्रोताओं से वाहवाही लूटी। बरेलवी ने हिन्दोस्तान की मिट्टी को मोहब्बत करने वाला बताते हुए कहा कि ये कवि सम्मेलन और मुशायरे जैसी गंगा-जमुनी गतिविधियां ही आपसी भाई-चारे को निभाने की प्रेरणा देती हैं। उन्होंने अपने एक गीत के माध्यम से जन-जीवन, श्रृंगार तथा मानव-मनस्थिति का बहुत ही अद्भुत चित्रण किया-
मेरे गांव की मिट्टी तेरी महक बड़ी अलबेली,
तेरा भोलापन दुनिया की सबसे बड़ी पहेली।
भोर भए फसलें अंगडाई ले जागे खलिहान,
खेतों में सूरज उतरे तो किरणें लगे किसान,
तू सदियों से एक ही जैसी फिर भी नई नवेली
तेरा भोलापन दुनिया।
सावन के झूलों में झूले जिस्मों के अंगारे,
पेंगे भरती उम्रें चढ़ती नदिया बहते धारे,
कोई है इनमें लाजदुलारी, कोई बड़ी खुलखेली
तेरा भोलापन दुनिया।
भाषायी दूरियों को समाप्त करते हुए प्रोफेसर बरेलवी साहब ने बताया कि बड़ी शायरी अपनी भाषा खुद लेकर आती है और आम आदमी की जिंदगी से जुड़कर अवाम की जुबान बन जाती है- कितनी गुनाहगार है रातों की जिंदगी, देखों किसी चिराग की आंखों में झांककर।
पानी पे तैरती हुई ये लाश देखिए,
और सोचिए कि डूबना कितना मुहाल है।
जो सबपे बोझ था एक शाम जब नहीं लौटा,
उसी परिंदे का शाखों को इंतजार रहा।
शाम तक सुबहा कि नजरों से उतर जाते हैं,
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं।
गरीब लहरों पे पहरे बिठाए जाते हैं,
और समुंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से,
मैं एतबार ने करता तो और क्या करता।
तलब की राह में पाने से पहले खोना पड़ता है,
बड़े सौदे नज़र में हो तो छोटा होना पड़ता है।
मोहब्बत जिंदगी के फैसलों से लड़ नहीं सकती,
किसी को खोना पड़ता है, किसी का होना पड़ता है।
कौन सी बात कैसे कहां की जाती है,
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने,
कैसे मां-बाप के होठों से हंसी जाती है।
तेरी एक नजर ही मुझको धूप से कर गई छांव,
सजन ये बात किसे बतलाऊं।
तन की तपती रेत पे जैसे गिरे फुहारे शबनम की,
कितनी लज्जाहीन छुअन पापी तेरे मौसम की
बदरा-बदरा सेज सजाऊं, धूप-धूप शरमाऊं।
सजन ये बात किसे बतलाऊं॥
कल तक जिस दर्पण में मैं थी और मेरे वीराने,
आज उसी दर्पण में तू ही तू है तू क्या जाने,
मेरे अंदर चोर छुपा है जाने कब लुट जाऊं।
सजन ये बात किसे बतालाऊं॥
रोज के देखे-भाले मंजर आज कुछ और कहे हैं,
दुनिया भर की नदियां जैसे मेरे साथ बहे हैं,
कैसा किनारा हाथ में आया है कि डूबी जाऊं।
सजन ये बात किस बतलाऊं।
बरेलवीजी का एकल काव्यपाठ सुनने के लिए राजधानी के अनेक कवि, लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी भारी संख्या में उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख हैं सर्वश्री रामनिवास लखोटिया, राजेन्द्र मोहन, बृजमोहन शर्मा, रामशरण गौड़, रत्ना कौशिक, हरीशंकर बर्मन, नरेश शांडिल्य, वीरेन्द्र प्रभाकर, बाबूलाल शर्मा, नूतन कपूर, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, उषा पुरी, मधु गुप्ता, रमाशंकर दिव्यदृष्टि, दीक्षित दनकौरी, सर्वेश चंदौसवी, जयदेव तनेजा, गिरीश भालवर आदि।