नई दिल्ली। छियासी वसंत देख चुके हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकार पद्मभूषण गोपालदास ‘नीरज’ ने राजधानी के प्रबुद्ध श्रोताओं को अपने गीतों से ऐसा सराबोर किया कि श्रोता झूम उठे। नीरजजी हिन्दी कविता की वाचिक परंपरा के उन्नायक पंडित गोपालप्रसाद व्यास की पांचवीं पुण्यतिथि पर शुक्रवार, 28 मई, 2010 को आयोजित ‘काव्ययात्रा : कवि के मुख से’ कार्यक्रम के अंतर्गत एकल काव्यपाठ करने हिन्दी भवन आए थे। काया से कमजोर नीरजजी के स्वर में सदाबहार मजबूती कायम थी।
अपनी काव्ययात्रा का उल्लेख करते हुए नीरजजी ने बताया कि पहले बलवीर सिंह ‘रंग’ और बाद में हरिवंशराय बच्चन के गीतों से प्रभावित होकर उन्होंने पहला गीत तब लिखा, जब वे नौवीं कक्षा के छात्र थे। उनका पहला गीत कानपुर के साप्ताहिक पत्र ‘जागरण’ में प्रकाशित हुआ। फिर तो गीतों का सिलसिला ऐसा चला कि देश-विदेश के प्रतिष्ठित मंचों पर उन्होंने अपनी पताका फहरा दी और उनकी गीत-यात्रा आज भी निरंतर जारी है। नीरजजी ने कहा कि यद्यपि गीत को हाशिये पर लाने के बहुत प्रयास किए गए और उसे खत्म करने के षडयंत्र हुए, लेकिन गीत आज भी मरा नहीं है। मेरा मानना है कि इस सृष्टि में हर वस्तु गतिमान है। ब्रह्मांड में सूरज, पृथ्वी, चांद आदि गतिशील हैं। ऋतुएं आती-जाती रहती है। नदियां निरंतर प्रवाहमान हैं। रात-दिन क्रमशः बदलते रहते हैं।, लेकिन गति के साथ-साथ उनमें एक लयात्मकता बनी हुई है। जब तक यह लय है तब तक गीत मर नहीं सकता। क्योंकि गीत की आत्मा लय ही है। इसलिए गीत अमर है। अपने एकल काव्यपाठ से पूर्व नीरजजी ने पंडित गोपालप्रसाद व्यास के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की और उन्हें याद करते हुए कहा कि दिल्ली में मुझे व्यास-परिवार से सबसे अधिक स्नेह और आत्मीयता मिली है। एक समय था कि पं. गोपालप्रसाद व्यास मुझे साथ लिए बिना किसी कवि-सम्मेलन में नहीं जाते थे। मैंने पिछले जन्म में अवश्य कोई सत्कर्म किए होंगे जो मुझे कवि होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ-
आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य,
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।
छिप-छिप अश्रु बहाने वालो !
मोती व्यर्थ लुटाने वालो !
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहां पर
केवल जिल्द बदलती पोथी।
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती।
वस्त्र बदलकर आने वालो !
चाल बदलकर जाने वालो !
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
खुशबू-सी आ रही है इधर जाफ़रान की
खिड़की खुली है फिर कोई उनके मकान की।
बुझ जाए सरेशाम ही जैसे कोई चिराग़
कुछ यूं है शुरूआत मेरी दास्तान की।
‘नीरज’ से बढ़के और धनी कौन है यहां
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की।
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई।
आप मत पूछिये क्या हमपे सफर में गुजरी ?
था लुटेरों का जहां गांव वहीं रात हुई।
जिन्दगी भर तो हुई गुफ्त़गू गैरों से मगर,
आज तक हमसे हमारी न मुलाकात हुई।
मैंने सोचा कि मेरे देश की हालत क्या है
एक क़ातिल से तभी मेरी मुलाकात हुई।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
जिन्दगी में प्यार की कहानी चाहिए।
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आंखों वाला पानी चाहिए।
रागिनी है एक प्यार की
जिन्दगी कि जिसका नाम है
गाके गर कटे तो है सुबह
रोके गर कटे तो शाम है
शब्द और ज्ञान व्यर्थ है
पूजा-पाठ-ध्यान व्यर्थ है
आंसुओं को गीतों में बदलने के लिए
लौ किसी यार से लगानी चाहिए।
आदमी को आदमी बनाने………………….।
यह प्यासों की प्रेम सभा है यहां संभलकर आना जी
जो भी आये यहां किसी का हो जाये दीवाना जी।
यहां न झगड़ा जाति-पांति का
और न झंझट मज़हब का
एक सभी की प्यास यहां पर
एक ही बस प्याला सबका।
यहां पिया से मिलना हो तो परदे सभी हटाना जी
यह प्यासों की प्रेम सभा है…………………..।
अब उजालों को यहां बनवास ही लेना पड़ेगा
सूर्य के बेटे अंधेरों का समर्थन कर रहे हैं।
एक भी क़न्दील जलती है कहीं पर भी न कोई
जुगनुओं की रोशनी में काम चलता है शहर का
इस कदर अमरित सरे बाज़ार अपमानित हुआ है-
हो गया है भाव ऊंचा सब दुकानों पर जहर का
लग रहा है अब परीक्षित यज्ञ फिर कोई करेगा
रस-विधायक स्वर, सपेरों का समर्थन कर रहे हैं।
कहानी बनके जिये हम तो इस जमाने में
लगेंगी आपको सदियां हमे भुलाने में।
न जिनको पीने का सलीका न पिलाने का शऊर
शरीफ ऐसे भी आ बैठे हैं मैखाने में।
गरीब क्यों न रहे देश की सारी बस्ती
है कैद खुशियां सभी एक ही घराने में।
है उसके वास्ते पागल कली-कली अब तक
कोई तो बात है ‘नीरज’ के गुनगुनाने में।
मैं सोच रहा हूं अगर तीसरा युद्ध छिड़ा
इस नई सुबह की नई फ़सल का क्या होगा ?
मैं सोच रहा हूं ग़र ज़मीन पर उगा खून,
मासूम हलों की चहल-पहल का क्या होगा ?
मैनाओं की नटखटी, ढिठाई तोतों की
यह शोर मोर का, भौंर भृंग की यह गुनगुन
बिजली की कड़क, तड़क, बदली की चटक मटक
यह जोत जुगनुओं की, यह झींगुर की झुनझुन।
आल्हा की यह ललकार, थाप यह ढोलक की,
सूरा, मीरा की सीख, कबीरा की बानी,
पनघट पर चपल गगरियों की यह छेड़छाड़
राधा की कान्हा से गुप-चुप आनाकानी।
क्या इन सब पर खामोशी मौत बिछा देगी,
क्या धुंध-धुंआ बनकर सब जग रह जाएगा ?
क्या कूकेगी कोयलिया कभी न बगिया में
क्या पपिहा फिर न पिया को पास बुलायेगा ?
हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे,
जैसा अपना आना प्यारे वैसा अपना जाना रे।
आग एक है एक चिलम है, अपना एक नशा है रे
बोल फकीरे सिवा नशे के, अपना कौन सगा है रे।
इनके अतिरिक्त नीरजजी ने कई टकसाली दोहे, मुक्तक, शेर और संस्कृत, अंग्रेजी साहित्य के उद्धरण भी श्रोताओं को सुनाकर अपने पांडित्य और काव्य-मर्मज्ञता का लोहा मनवाया। उनके काव्यपाठ के दौरान शुरू से अंत तक खचाखच भरा हिन्दी भवन सभागार तालियों से गूंजता रहा। समारोह के प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने मुख्य अतिथि के रूप में पधारे दिल्ली के नवनिर्वाचित महापौर पृथ्वीराज साहनी का संक्षिप्त परिचय दिया तथा हिन्दी भवन के अध्यक्ष और कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन की मंत्री इन्दिरा मोहन और रामनिवास लखोटिया ने क्रमशः शाल, पुष्पगुच्छ, प्रतीक चिह्न देकर महापौर का अभिनंदन किया।
इस अवसर पर महापौर श्री साहनी ने कहा कि जब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ता था तब वहां होने वाले साहित्यिक कार्यक्रमों और गोष्ठियों में जाया करता था। पहले मैं अंग्रेजी में हस्ताक्षर करता था लेकिन बाद में मेरे गुरु महेशचंद्र शर्मा के अनुरोध पर मैंने हिन्दी में हस्ताक्षर करने शुरू कर दिए। इस सभागार में उपस्थित हिन्दीप्रेमी महानुभावों को मैं विश्वास दिलाना चाहता हूं कि दिल्ली नगर निगम में अधिकांश कार्य हिन्दी में हो, इसके लिए मैं भरसक प्रयत्न करूंगा।
मेरा मानना है कि भाषा और साहित्य के रूप में हिन्दी इतनी समृद्ध है कि उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना ही चाहिए। नीरजजी का एकल काव्यपाठ सुनने के लिए अनेक कवि, लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी भारी संख्या में उपस्थित थे। जिनमें प्रमुख हैं- रामनिवास जाजू, बालस्वरूप राही, शेरजंग गर्ग, पुष्पा राही, गीता चन्द्रन, रोशनलाल अग्रवाल, हरीशंकर बर्मन, ममता आशुतोष, बी. एल. गौड़, राजशेखर व्यास, शीला झुनझुनवाला, अजय भल्ला, सुरेन्द्रमोहन तरुण, ओमकार चौधरी, उषा पुरी आदि।
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