हिन्दी भवन के नियमित कार्यक्रमों की शृंखला में एक नई कड़ी जुड़ी, उसका नाम है ‘काव्य-यात्रा : कवि के मुख से’। इसके अंतर्गत यह निश्चय किया गया कि हिन्दी-काव्य की वाचिक परंपरा को संरक्षित करने और उसे सुदृढ़ बनाने के लिए वर्ष में एक या उससे अधिक बार हिन्दी के किसी एक वरिष्ठ कवि का एकल काव्य-पाठ सुधी श्रोताओं के सम्मुख कराया जाए। इस कार्यक्रम की शुरूआत वाचिक परंपरा के उन्नायक और हिन्दी भवन के संस्थापक पं.गोपालप्रसाद व्यास की दूसरी पुण्यतिथि 28 मई, 2007 से की गई। जिसमें पहली बार हिन्दी के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय गीतकार श्री भारतभूषण ने अपना काव्य-पाठ किया।
पं. गोपालप्रसाद व्यास की द्वितीय पुण्यतिथि 28 मई, 2007 को हिन्दी के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय गीतकार श्री भारतभूषण ने हिन्दी भवन के धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष में श्रोताओं के सम्मुख अपने चुनिंदा छह-सात गीत सुनाए। काव्य-यात्रा : ‘कवि के मुख से’ नामक इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं दिल्ली नगर निगम की महापौर सुश्री आरती मेहरा। इस कार्यक्रम का संचालन हिन्दी के वरिष्ठ गीतकार डॉ. कुंवर बेचैन ने किया। समारोह के प्रारंभ में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने बताया कि काव्य की वाचिक परंपरा हजारों साल पुरानी है। जितना भी भारतीय वाङमय है, वह श्रुति के माध्यम से आज तक सुरक्षित रहा है। तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, गालिब, मीर आदि आज तक वाचिक परंपरा के कारण ही आम आदमी की जुबान पर सुरक्षित रहे हैं। हिन्दी में कवि-सम्मेलनों का इतिहास 75 या 100 वर्ष पुराना है।
ये कवि-सम्मेलन उर्दू मुशायरों के समानांतर शुरू हुए थे। हिन्दी के पुराने कवियों ने सोचा कि हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाने के लिए जगह-जगह कवि-सम्मेलन आयोजित किए जाएं। इससे काव्य की वाचिक परंपरा पुनर्जीवित हुई। निराला, रामकुमार वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, श्रीनारायण चतुर्वेदी, श्यामनारायण पाण्डे, गोपालप्रसाद व्यास, गोपालसिंह नेपाली तथा गोपालदास नीरज आदि ने काव्य की वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाया। इसी परंपरा की एक कड़ी हैं भाई भारतभूषणजी। वे हिन्दी गीत-विधा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। आज वह आपके सम्मुख अपना गीत-पाठ करेंगे, जिन्हें हम उनकी आवाज़ में सुरक्षित रखेंगे।
दिल्ली की महापौर सुश्री आरती मेहरा ने पुष्पगुच्छ भेंट करके गीतकार भारतभूषण को सम्मानित किया। हिन्दी भवन के न्यासी श्री महेशचन्द्र शर्मा ने भारतभूषण को शाल भेंट किया और हिन्दी भवन के कोषाध्यक्ष श्री हरीशंकर बर्मन ने उन्हे सरस्वती की प्रतिमा भेंट की। विश्वप्रसिद्ध अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ. पी. के. दवे ने दिल्ली की महापौर आरती मेहरा को पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया। वरिष्ठ आलोचक डॉ. निर्मला जैन ने उन्हें शाल ओढ़ाया और आजीवन न्यासी श्रीमती इन्दु गुप्ता ने आरतीजी को सरस्वती की प्रतिमा भेंट की।
कार्यक्रम के संचालक डॉ. कुंवर बेचैन ने हिन्दी-गीत में भारतभूषणजी के योगदान को रेखांकित करते हुए उनका परिचय दिया। लोकप्रिय कवयित्री सुश्री नूतन कपूर ने भारतजी का एक गीत उन्हीं की शैली में प्रस्तुत किया। गीत का मुखड़ा था-
मैं रात-रात भर दहूं और तू काजल आजं-आजं सोए,
मुझको क्या फिर शबनम रोए, मैं रोऊं या सरगम रोए।
तेरे घर केवल दिया जले, मेरे घर दीपक भी मैं भी,
भटकूं तेरी राहें बांधे, पैरों में भी पलकों में भी।
मैं आंसू-आंसू बहूं और तू बादल ओढ़-ओढ़ सोए।
मैं रात-रात भर दहूं…………………..।
भारतभूषणजी ने अपने काव्य-पाठ से पूर्व हिन्दी भवन और सुधी श्रोताओं का आभार व्यक्त करते हुए कहा- “दिल्ली ने मुझे बहुत जल्दी अपना लिया।सन् 54 या 55 में लाल किले में पहली बार काव्य-पाठ करने आया। उसके कुछ समय बाद ही मुझसे स्नेह रखने वाले चाचाजी, यानि पं. गोपालप्रसाद व्यास ने राष्ट्रपति भवन में डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के सम्मुख काव्य-पाठ करने के लिए बुलाया।” श्री भारतभूषण ने बताया कि अपने देहांत से 4-5 वर्ष पूर्व महादेवी वर्मा के सान्निध्य में इलाहाबाद में एक गोष्ठी हुई, जिसमें सिर्फ 10-15 लोग ही थे। वहां मैंने ‘राम की जल समाधि’ गीत पढ़ा। गीत समाप्त होने पर महादेवीजी ने स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोलीं -“भाई, तुमने आज तक राम पर लगे सभी आक्षेपों को इस गीत से धो दिया है।”
इसके बाद भारतभूषणजी ने अपने कई गीत सुनाए, जिनकी बानगी आपके लिए प्रस्तुत है-
आधी उम्र करके धुंआ यह तो कहो किसके हुए,
परिवार के या प्यार के,या गीत के या देश के,
यह तो कहो किसके हुए…………………।
कंधे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं,
रितुएं सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं
फिर भी न टंक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन
अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए।
यह तो कहो किसके हुए…………….।
जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे,
ढूंढ़ते फिरोगे लाखों में।
फिर कौन सामने बैठेगा, बंगाली भावुकता पहने,
दूरों-दूरों से लाएगा केशों को गंधों के गहने,
यह देह अंजता शैली सी किसकी रातें महकाएंगी
जीने के मोड़ों की छुअनें, फिर चांद उछालेगा पानी
किसकी समुन्दरी आंखों में।
जिस दिन भी……………………………..।
ये असंगति जिंदगी के द्वार सौ-सौ बार रोई,
बांह में है और कोई, चाह में है और कोई।
सांप के आलिंगनों में, मौन चंदन तन पड़े हैं,
सेज के सपनों भरे कुछ फूल मुरदों पर चढ़े हैं,
ये विषमता भावना ने सिसकियां भरते समोई,
देह में है और कोई, नेह में है और कोई
ये असंगति जिंदगी……………………।
न जन्म लेता अगर कहीं मैं, धरा बनी ये मसान होती,
न मंदिरों में मृदंग बजते, न मसजिदों में अजान होती।
लिए सुमिरनी डरे हुए से, बुला रहे हैं मुझे पुजेरी,
जला रहे हैं पवित्र दीवे, न राह मेरी रहे अंधेरी,
हजार सिजदे करें नमाजी, न किंतु मेरा जलाल घटता,
पनाह मेरी यही शिवाला, महान गिरजा सराय मेरी,
मुझे मिटाकर न धर्म रहता, न आरती में कपूर जलता,
न पर्व पर ये नहान होता, न ये बुतों की दुकान होती।
न जन्म लेता अगर कहीं मैं……………………….।(‘पाप’ शीर्षक गीत से)
तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा,
धरती के कागज पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी।
रेते पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था,
मलयानिल के बहकाने से, बस एक प्रभात निखरना था।
गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाये,
ऐसे ही मेरा हृदय कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था।
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले,
मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी।
तस्वीर अधूरी रहनी थी…………………………।
शायद मैंने गत जनमों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे,
चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे।
ऐसा अपराध हुआ होगा, जिसकी फिर क्षमा नहीं मिलती,
तितली के पर नोंचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे।
अनगिनती कर्ज चुकाने थे, इसलिए जिंदगी भर मेरे,
तन को बेचैन भटकना था, मन में कस्तूरी रहनी थी।
तस्वीर अधूरी रहनी थी……………………………….।
भारतभूषणजी ने अपने काव्य-पाठ का समापन ‘राम की जल समाधि’ गीत से किया। उनका यह गीत गीति-काव्य में मील का पत्थर माना जाता है। इस गीत को सुनकर ‘राम की जल समाधि’ का करुण और मार्मिक चित्र आखों के सामने उपस्थित हो जाता है। आपके लिए प्रस्तुत है ‘राम की जल समाधि’ शीर्षक पूरा गीत–
पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,
निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।
किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूं, धरती मुझको किसलिए सहे।
तू कहां खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहां,
मुरझे राजीव नयन बोले, कांपी सरयू, सरयू कांपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, अब सांस-सांस संग्राम हुई।
ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार,
मांग रे भिखारी, लोक मांग, कुछ और मांग अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आंसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएं,
आदर्शों के जल महल बना, फिर राम मिले न मिले तुझको,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूं,
कब तक पहनूं ये मौन धैर्य, बोलूं भी तो किससे बोलूं,
सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूंजा भर था,
छप से पानी में पांव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,
फिर लहरों पर वाटिका खिली, रतिमुख सखियां, नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। फिर धुआं-धुआं फिर अंधियारा,
लहरों-लहरों, धारा-धारा, व्याकुलता फिर पारा-पारा।
फिर एक हिरन-सी किरन देह, दौड़ती चली आगे-आगे,
आंखों में जैसे बान सधा, दो पांव उड़े जल में आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, आया लो नाभि-नाभि पानी,
जल में तम, तम में जल बहता, ठहरो बस और नहीं कहता,
जल में कोई जीवित दहता, फिर एक तपस्विनी शांत सौम्य,
धक् धक् लपटों में निर्विकार, सशरीर सत्य-सी सम्मुख थी,
उन्माद नीर चीरने लगा, पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।
आगे लहरें बाहर लहरें, आगे जल था, पीछे जल था,
केवल जल था, वक्षस्थल था, वक्षस्थल तक केवल जल था।
जल पर तिरता था नीलकमल, बिखरा-बिखरा सा नीलकमल,
कुछ और-और सा नीलकमल, फिर फूटा जैसे ज्योति प्रहर,
धरती से नभ तक जगर-मगर, दो टुकड़े धनुष पड़ा नीचे,
जैसे सूरज के हस्ताक्षर, बांहों के चंदन घेरे से,
दीपित जयमाल उठी ऊपर,
सर्वस्व सौंपता शीश झुका, लो शून्य राम लो राम लहर,
फिर लहर-लहर, सरयू-सरयू, लहरें-लहरें, लहरें- लहरें,
केवल तम ही तम, तम ही तम, जल, जल ही जल केवल,
हे राम-राम, हे राम-राम
हे राम-राम, हे राम-राम ।
भारतभूषणजी के एकल काव्य-पाठ को सुनने के लिए भारी संख्या में कवि, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी और हिन्दीप्रेमी उपस्थित हुए। जिनमें प्रमुख थे सर्वश्री- वीरेशप्रताप चौधरी, वीरेन्द्र प्रभाकर, बालस्वरूप राही, ओमप्रकाश आदित्य, अल्हड़ बीकानेरी, उपेन्द्र, नरेशा शांडिल्य, प्रवीण शुक्ल, पुरुषोत्तम वज्र, अनिल जोशी, राजकुमार, श्याम निर्मम, सर्वेश चंदौसवी, शाहिद अंजुम, रेखा व्यास, कीर्तिकाले, रवि शर्मा, संतोष माटा, रत्ना कौशिक आदि।
कार्यक्रम के अंत में हिन्दी भवन के मंत्री डॉ. गोविन्द व्यास ने भारतभूषणजी और आमंत्रित श्रोताओं का आभार व्यक्त किया।