हिन्दी साहित्य के मनीषी साहित्यकारों की जन्मशतियां मनाने के क्रम में हिन्दी भवन द्वारा भारतीय मनीषा के संवाहक, युगदृष्टा कवि, एकांकी सम्राट, हिन्दी साहित्य के इतिहासकार एवं आदर्श शिक्षक डॉ. रामकुमार वर्मा की जन्मशती का समापन समारोह ‘शिक्षक दिवस’ 5 सितम्बर, 2006 को आयोजित किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि थे केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्री अर्जुन सिंह और अध्यक्ष थे प्रख्यात कथाशिल्पी श्री कमलेश्वर।
इस अवसर पर डॉ. रामकुमार वर्मा की सुपुत्री डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय थी। समारोह में डॉ. रामकुमार वर्मा के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर सर्वश्री देवेन्द्रराज अंकुर, डॉ. योगेन्द्रप्रताप सिंह, डॉ. गंगाप्रसाद विमल एवं श्री राजनारायण बिसारिया ने अपने-अपने विद्वतापूर्ण वक्तव्य दिए।
“हिन्दी संतों के दौर से शुरू हुई, लेकिन साहित्य का दर्जा उसे अमीर खुसरो ने दिलाया।” डॉ. रामकुमार वर्मा के इस कथन को सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री कमलेश्वर ने हिन्दी भवन द्वारा आयोजित उनकी जन्मशती समापन समारोह में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा । उन्होंने कहा कि “डॉ. वर्मा ने एकांकी विधा का सृजन करके साहित्य में प्रयोगवाद को बढ़ावा दिया। यह उनकी जन्मशती समारोह का समापन नहीं, बल्कि नए की अवधारणा का प्रारंभ है।” इस अवसर पर मुख्य अतिथि मानव संसाधन विकास मंत्री श्री अर्जुन सिंह ने डॉ. वर्मा के नाट्य सृजन की चर्चा करते हुए उनकी कृति ‘एकलव्य’ को रेखांकित किया और कहा कि “एकलव्य आज के युग में भी प्रासंगिक है।” उन्होंने हिन्दी भवन को अपने मंत्रालय से पांच लाख रुपये की धनराशि अनुदान स्वरूप देने की घोषणा भी की। डॉ. वर्मा की सुपुत्री डॉ. राजलक्ष्मी वर्मा ने उन्हें लेखकों की एक टीम का गुरु बताया और कहा कि उनके शिष्य ही उनके वास्तविक उत्तराधिकारी हैं। डॉ. योगेन्द्रप्रताप सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि,”डॉ. वर्मा छायावाद को आत्मीय सौंदर्य और गूढ़ता की अभिव्यक्ति कहते थे।” दूसरी ओर डॉ. गंगाप्रसाद विमल ने बताया कि “वे अकेले ऐसे छायावादी कवि थे जो प्रत्येक विधा में अपना प्रभाव छोड़ गए। ऐसे सृजनात्मक व्यक्तित्व को याद करना उनसे दृष्टि विवेक लेना है।” श्री राजनारायण बिसारिया ने डॉ. वर्मा के संस्मरण सुनाते हुए कहा कि “साहित्य सृजन में छायावाद और रहस्यवाद के अलावा डॉ. वर्मा यथार्थ के धरातल पर भी आ चुके थे।” राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक श्री देवेन्द्रराज अंकुर ने नाटक की एकांकी विधा को पहचान दिलाने में उनके योगदान की चर्चा करते हुए कहा कि,”वे अकेले लेखक थे जिन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने एकांकी रेडियो के लिए लिखे थे।
आयोजन का संचालन डॉ. वर्मा के शिष्य श्री कृष्णकांत ने किया और संयोजन हिन्दी भवन के मंत्री एवं कवि डॉ. गोविन्द व्यास ने।
समारोह के दूसरे चरण में सुप्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सुश्री असावरी पवार ने डॉ. रामकुमार वर्मा के गीतों पर भावपूर्ण नृत्य प्रस्तुत किया। संगीत दिया प्रसिद्ध संगीतकार पं. ज्वालाप्रसाद ने। असावरी की नृत्य-प्रस्तुति का निर्देशन उनके पिता और कथक नृत्य परंपरा के विशिष्ट गुरु श्री प्रताप पवार ने किया। डॉ. रामकुमार वर्मा जन्मशती समारोह में डॉ. वर्मा के समग्र साहित्य की प्रदर्शनी लगाई गई और उनके तैल-चित्र का अनावरण भी किया गया।
भारतीय मनीषा के संवाहक डॉ. रामकुमार वर्मा बहुमुखी प्रतिभा के धनी सर्जक थे। अपने विपुल कृतित्व से उन्होंने हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं को समृद्ध किया। वह श्रेष्ठ कोटि के चिंतक और विचारक तो थे ही, उन्होंने कविता और नाट्य विधाओं का विशेष रूप से संवर्धन किया। एकांकी नाट्य लेखन में अपने अभिनव प्रयोगों और सृजन से वह समकालीन हिन्दी साहित्य में ‘एकांकी सम्राट’ के रूप में समादृत हुए। डॉ. रामकुमार वर्मा का जन्म 15 सितम्बर, 1905 को मध्यप्रदेश में सागर के एक अत्यंत कुलीन और धर्मपरायण परिवार में हुआ। उनके पिता श्री लक्ष्मीप्रसाद वर्मा डिप्टी कलेक्टर थे। वह बड़ी प्रगाढ़ सांस्कृतिक अभिरुचि वाले व्यक्ति थे और नगर में आई विभिन्न नाटक मंडलियों द्वारा रामलीला और रासलीला के प्रसंगों का घर पर ही मंचन कराते थे। डॉ. वर्मा की सुकुमार संवेदनाओं पर इन आयोजनों का बड़ा प्रभाव पड़ा और यहीं से उनके सांस्कृतिक सरोकार उनकी अंतश्चेतना में उतरते गए। उनकी माता श्रीमती राजरानी देवी अपने समय की प्रतिष्ठित कवयित्री और संगीतज्ञा थीं और उनसे उन्होंने कविता तथा संगीत के प्रति विशेष अनुराग के गुणों को आत्मसात किया।
डॉ. वर्मा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नागपुर और रामटेक के विभिन्न मराठी विद्यालयों में प्राप्त की और अपनी माता से घर में ही हिन्दी का विशेष ज्ञान प्राप्त किया। 1919 में उन्होंने जबलपुर के क्रिश्चियन मिशन स्कूल में प्रवेश लिया तथा 1921 के आते-आते वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गए जिससे अध्ययन में व्यवधान पड़ा। उनका परिवार राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत था और किशोरावस्था में ही वह एक हाथ में राष्ट्रध्वज थामे देशभक्ति के स्वरचित गीत गाते हुए नगर की विभिन्न बस्तियों में घूमा करते थे। डॉ. वर्मा ने एक कवि के रूप में मात्र 17 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित एक कविता प्रतियोगिता में 51 रुपये का पुरस्कार जीता और इसी बिंदु से उनकी काव्ययात्रा प्रारंभ हो गई। 1925 में उच्च अध्ययन के लिए वह इलाहाबाद चले गए जहां 1927 में उन्होंने बी.ए. तथा 1929 में हिन्दी साहित्य में एम.ए. की उपाधियां अर्जित कीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम.ए.की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने वाले वह सर्वप्रथम छात्र थे। इस शैक्षणिक उपलब्धि के लिए उन्हें उसी वर्ष हिन्दी विभाग में प्रवक्ता नियुक्त किया गया। वह फिर इलाहाबाद के ही होकर रह गए।
डॉ. वर्मा ने अध्यापन जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही ‘कबीर का रहस्यवाद’ और ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ नामक दो शोधपरक ग्रंथों की रचना की जिसके लिए नागपुर विश्वविद्यालय ने 1940 में उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि प्रदान की। इसी वर्ष उन्हें ‘रत्नकुमारी पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ। 1957 में वह मास्को विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा अध्ययन विभाग के अध्यक्ष के रूप में सोवियत संघ की यात्रा पर गए। 1963 में उन्हें नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय ने शिक्षा सहायक के रूप में आमंत्रित किया। 1967 में श्रीलंका के पेरेदेनिया विश्वविद्यालय में वह भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष के रूप में भेजे गए। भारत सरकार ने उन्हें 1965 में पद्मभूषण के राष्ट्रीय अलंकरण से विभूषित किया। 1966 में वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए। डॉ. वर्मा ने अपनी काव्ययात्रा छायावाद के नवविहान से प्रारंभ की और नई कविता के नवोन्मेष तक उनका सृजनकर्म अनवरत चलता रहा। वह मूलतः एक कवि थे। उन्होंने लिखा भी है- “जीवन को आशावाद का संदेश देना ही मेरी कविता का ध्येय रहा है।” हिन्दी काव्य-जगत को डॉ. वर्मा ने ‘एकलव्य’, ‘उत्तरायण’ और ‘ओ अहल्या !’ जैसे सांस्कृतिक महाकाव्य दिए। एक नाट्यशिल्पी के रूप में उन्होंने ‘कौमुदी महोत्सव’, ‘अशोक का शोक’, ‘महाराणाप्रताप’ और ‘भगवान बुद्ध’ जैसे उत्कृष्ट नाटकों का प्रणयन किया। एकांकीकार के रूप में उन्होंने ‘पृथ्वीराज की आंखें’, ‘रेशमी टाई’, ‘दीपदान’ तथा ‘चंद्रलोक’ जैसे एकांकी नाटकों का सृजन किया। उन्होंने भारवि, कबीर, सूर, तुलसी, भारतेन्दु तथा प्रसाद जैसी विभूतियों पर भी एकांकी लिखे। उन्होंने सौ से अधिक एकांकियों की रचना की। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों में भी उनका नाम अग्रिम पंक्ति में आता है। डॉ. वर्मा अपने उर्वर जीवन में 101 कृतियों से हिन्दी साहित्य की समग्र विधाओं को श्रीमंडित कर 5 अक्टूबर, 1990 को दिवगंत होगए।