डॉ नगेन्द्र

हिन्दी भवन के तत्वावधान में डॉ. नगेन्द्र की स्मृति में एक संध्या का आयोजन शुक्रवार, 3 दिसम्बर, 1999 को डॉ. निर्मला जैन की अध्यक्षता में किया गया। सान्निध्य रहा हिन्दी भवन के अध्यक्ष श्री धर्मवीर (आई.सी.एस) का। मुख्य वक्ता थे-सर्वश्री पं. गोपालप्रसाद व्यास, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, अजित कुमार और डॉ. गोविन्द व्यास। हिन्दी भवन के अध्यक्ष धर्मवीर (आई.सी.एस) ने डॉ नगेन्द्र के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित की और कहा- “यद्यपि डॉ. नगेन्द्र से मेरा संपर्क बहुत अधिक नहीं रहा, तथापि मैं उनके हिन्दी भाषा और साहित्य को दिए गए योगदान से अभिभूत हूं।”

डॉ. नगेन्द्र का स्मरण करते हुए पं. गोपालप्रसाद व्यास ने कई रोचक संस्मरण सुनाए और कहा -“डॉ. नगेन्द्र से मेरी मित्रता लगभग 50 वर्ष पुरानी थी। मैं पहले दिल्ली आया और पाया कि दिल्ली में उर्दू और अंग्रेजी का बड़ा बोलबाला है। हिन्दी के नाम पर कुछ छोटी-मोटी संस्थाएं रामायण पाठ और प्रवचनों तक ही सीमित थीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी हिन्दी को कोई पूछने वाला नहीं था। बाद में डॉ.नगेन्द्र दिल्ली विश्वविद्यालय में आए तो वहां हिन्दी विषय की नींव पड़ी। उन्होंने जी-जान लगाकर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग को सुदृढ़ता प्रदान की और योग्य प्राध्यापकों की नियुक्ति करके हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्ययन को एक नया आयाम दिया।

डॉ नगेन्द्र काव्य-शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। रस, छन्द, अलंकार और नायिका भेद पर उनके साथ मेरी गंभीर चर्चा होती रहती थी। ब्रज-काव्य और ब्रजभाषा पर शोध करने वाले शोधार्थियों को अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए डॉ. नगेन्द्र मेरे पास भेजा करते थे।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रहे वामपंथी आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने डॉ. नगेन्द्र को याद करते हुए कहा- “डॉ. नगेन्द्र से पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापकों को ‘शास्त्रीजी’ या ‘आचार्यजी’ कहकर पुकारा जाता था। डॉ. नगेन्द्रजी पहले हिन्दीवाले थे, जो ‘डॉक्टर साहिब’ कहे जाते थे। उन्होंने विश्वविद्यालय में हिन्दी को अंग्रेजी के समकक्ष प्रतिष्ठा दिलाई। देश के सभी विश्वविद्यालयों में उनकी धाक थी। उन्होंने हिन्दी साहित्य और काव्य-शास्त्र की परंपरा को आगे बढ़ाने में अपना अमूल्य योगदान दिया।”

कवि डॉ. अजित कुमार ने नगेन्द्रजी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए हिन्दी साहित्य में उनके अवदान को रेखांकित किया और कहा- “डॉ. नगेन्द्र की शिष्य मंडली बड़ी व्यापक थी। देश का कोई विश्वविद्यालय या कॉलेज ऐसा नहीं होगा, जहां उनका कोई शिष्य न हो।”

इस अवसर पर डॉ. नगेन्द्र की सुपुत्री डॉ. सुषमा प्रियदर्शिनी भी उपस्थित थीं। उन्होंने अपने पिता के कई संस्मरण सुनाए और बताया कि मेरे पिता (डॉ. नगेन्द्र) खाने-पीने में बहुत परहेज बरतते थे। शुद्ध शाकाहारी और बिना मिर्च-मसालों का भोजन उन्हें प्रिय था। जब कभी वह किसी दावत में जाते तो दही, सलाद और रोटी से काम चलाते। सब्जी खाते तो पहले उसे पानी में धोकर उसका मिर्च-मसाला दूर कर लेते। लेकिन अपने आखिरी समय में उन्होंने सारे परहेज तोड़ दिए थे। उन्हें कचौड़ी और मिर्च-मसालेदार आलू की सब्जी प्रिय लगती थी।

स्मृति संध्या की अध्यक्षा डॉ. निर्मला जैन ने डॉ. नगेन्द्र को युगपुरुष बताया। उन्होंने कहा- “मुझे डॉ. नगेन्द्र की शिष्या होने पर गर्व है। उनकी मुझ पर हमेशा कृपादृष्टि बनी रही। वह अकसर मेरे घर आते थे तथा भाषा और साहित्य की दशा और दिशा पर विचार-विमर्श करते थे। उनके न रहने पर मेरी व्यक्तिगत क्षति तो हुई ही है, भाषा और साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई है।”